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________________ आत्मा का दर्शन ३८५. एदाओ अट्ठ पवयण-मादाओ णाण- दंसण- चरितं । रक्खति सदा मुणिणो, मादा पुत्तं व पयदाओ ॥ ३८६. एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो ॥ ३८७. जह गुत्तस्सिरियाई, न होंति दोसा तव समियस्स गुत्ती ट्ठियप्पमायं, रुंभइ समिई सचेट्ठस्स ॥ ३८८. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो, ३८९. आहच्च हिंसा समितस्स जा तु हिंसा - मेत्तेण समिदीसु ॥ सा दव्वतो होति ण भावतो उ। भावेण हिंसा तु असंजतस्स, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ॥ ३९०. संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, ७०० सा दव्वहिंसा खलु भावतो य । अज्झत्थ-सुद्धस्स जदा ण होज्जा, aण जोगो दुहतो वsहिंसा ।। ३९१-३९२. उच्चालियम्मि पाए, हितग्घाद- णिमित्तो, इरियासमियस्स णिग्गमणट्ठाए । आबाधेज्ज कुलिंगी, मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥ बंधो सुमो वि देसिओ समए । मुच्छा परिग्गहो त्तिय, अज्झप्प - पमाणदो भणिदो ॥ ( युग्मम् खण्ड-५ ये आठ प्रवचन माताएं मुनि के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का वैसे ही रक्षण करती हैं। जैसे सावधान माताएं अपने पुत्रों का । ये पांच समितियां चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं और मियां सभी अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिए हैं। जैसे प्रवृत्ति से निवृत्त पुरुष को गमन-आगमन आदि मूलक दोष नहीं लगते, वैसे ही सम्यक् प्रवृत्त पुरुष को भी वे दोष नहीं लगते। जैसे निवृत्त पुरुष प्रमाद को रोकता. है, वैसे ही सम्यक् प्रवृत्त पुरुष क्रियाशील होने पर भी प्रमाद को रोकता है। जीव मरे या न मरे, प्रमत्त पुरुष को हिंसा का दोष अवश्य लगता है-कर्म-बंध अवश्य होता है। किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है उससे किसी प्राणी के मर जाने पर भी कर्म - बंध नहीं होता । समिति का पालन करते हुए साधु से जो आकस्मिक हिंसा हो जाती है, वह केवल द्रव्य हिंसा है, भाव हिंसा नहीं। जो असंयमी या प्रमत्त होते हैं। वे सदा जीव-वध नहीं करते, फिर भी उनके भाव - हिंसा होती है। असंयमी या प्रमत्त के द्वारा प्राणी का वध हो जाने पर द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की हिंसा होती है, अध्यात्म शुद्धि से युक्त पुरुष द्वारा (मनःपूर्वक) किसी का वध नहीं होता तब उसके द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की अहिंसा होती है। ईर्यासमितिपूर्वक चलनेवाले के पैर के नीचे अचानक कोई छोटा-सा जीव आ जाए और उसके योग से मर जाये उस वध के निमित्त से उसके सूक्ष्म मात्र भी बंध नहीं होता। यह आगम का निर्देश है। जैसे अध्यात्म (शास्त्र) में मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा गया है, वैसे ही उसमें प्रमाद को हिंसा कहा गया है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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