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________________ समणसुत्तं ३७५. सव्वेसिं गंथाणं, चागो णिरवेक्ख-भावणापुव्वं। पंचम-वदमिदि भणिदं, चारित्त-भरं वहंतस्स॥ अ. २ : मोक्षमार्ग निरपेक्ष भावनापूर्वक सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना, चारित्र का भारवहन करनेवाले साधु का पांचवां महाव्रत कहलाता है। ३७६. किं किंचणत्ति तक्कं, अपुणब्भव-कामिणोध देहे वि। - संग त्ति जिणवरिंदा, णिप्पडिकम्मत्तमहिठा॥ जब अर्हतों ने मोक्षाभिलाषी को 'शरीर भी परिग्रह है' कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या है? ३७७. अप्पडिकुठें उवधि, अपत्थणिज्जं असंजद-जणेहिं। मुच्छादि-जणण-रहिदं, गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं॥ जो अनिवार्य होने के कारण अप्रतिषिद्ध है, साधारण होने के कारण गृहस्थों द्वारा अनभिलषणीय है, ममत्व आदि पैदा करनेवाले नहीं है। ऐसे अल्प उपकरण ही श्रमण के लिए उपादेय है। ३७८. आहारे व विहारे, देसं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो, वट्टदि जदि अप्पलेवी सो॥ आहार अथवा विहार में देश, काल, श्रम, सामर्थ्य तथा उपधि को जानकर व्यवहार करनेवाला श्रमण अल्पलेपी-अल्प बंध वाला होता है। ३७९. न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। ... मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा॥ सब जीवों के त्राता नागपुत्र महावीर ने कहा-उपधि परिग्रह नहीं है। मूर्छा परिग्रह है। ३८०. सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए। संयमी मुनि लेप लगे उतना भी संग्रह न करे-बासी पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए॥ न रखे। पक्षी की भांति कल की अपेक्षा न रखता हुआ पात्र लेकर भिक्षा के लिए पर्यटन करे। पागल ३८१. संथार-सेज्जासण-भत्तपाणे, .. . अप्पिच्छया अइलाभे वि संते। जो एवमप्पाणंभितोसएज्जा, संतोस-पाहन्न-रए स पुज्जो ॥ संस्तारक, शय्या, आसन, भोजन और पानी का अधिक लाभ होने पर भी जो अल्पेच्छ होता है। अपनेआप को संतुष्ट रखता है और जो संतोषप्रधान जीवन में रत है, वह पूज्य है। ३८२. अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए। . आहारमइयं सव्वं, मणसा वि ण पत्थए॥ साधु सूर्यास्त से पुनः सूर्य पूर्व में न निकल आए तब तक सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करे। ३८३. संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा। जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे?॥ समिति गुप्ति सूत्र अष्ट प्रवचन माता ३८४. इरिया-भासेसणाऽऽदाणे, उच्चारे समिई इय। मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा॥ जो त्रस और स्थावर सूक्ष्म प्राणी हैं, उन्हें रात्रि में नहीं देखता हुआ निर्ग्रन्थ एषणा कैसे कर सकता है। समिति-गुप्ति सूत्र अष्ट प्रवचनमाता ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग-ये पांच समितियां हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्तिये तीन गुप्तियां हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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