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________________ आत्मा का दर्शन ६९८ खण्ड-५ ३६५. णिस्सल्लस्सेव पुणो, शल्य-मुक्त पुरुष के जीवन में ही ये सब महाव्रत महव्वदाइं हवंति सव्वाइं। निष्पन्न होते हैं। निदान, मिथ्यात्व और माया-ये तीन वदमुवहम्मदि तीहिं दु, शल्य हैं, इनके द्वारा व्रत उपहत हो जाते हैं। णिदाण-मिच्छत्त-मायाहिं॥ ३६६. अगणिअ जो मुक्ख-सुहं, कुणइ निआणं असार-सुह-हेडं। स कायमणिकएणं, वेरुलियमणिं पणासेइ॥ जो पुरुष मोक्ष-सुख की अवगणना कर असार सुख की प्राप्ति के लिए निदान करता है, वह कांचमणि के लिए वैडूर्यमणि को गंवाता है। ३६७. कुल-जोणि-जीव-मग्गण ठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं। तस्सारंभ-णियत्तण-परिणामो होइ पढम-वदं॥ कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि में जीवों को जानकर उनसे संबंधित आरंभ से निवृत्तिरूप (आभ्यन्तर) परिणाम प्रथम अहिंसा व्रत है। '' ३६८. सव्वेसिमासमाणं,हिदयं गब्भो व सव्व-सत्थाणं। सव्वेसिं वद-गुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु॥ अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों और गुणों का पिण्डभूत सार है। ३६९. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए। सत्यव्रती स्वयं अपने या दूसरों के लिए क्रोध या भय से पीडाकारक सत्य और असत्य न बोले, और न दूसरों से बुलवाए। ३७०.गामे वा णयरे वा, रणे वा पेच्छिऊण परमत्थं। जो मुंचदि गहण-भावं, तिदिय-वदं होदि तस्सेव॥ ग्राम, नगर अथवा अरण्य में दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव त्याग देनेवाले व्रती के तीसरा अचौर्य-व्रत होता है। ३७१. चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। दंतसोहण-मत्तं पि, ओग्गहंसि अजाइया॥ अचौर्यव्रती सजीव या निर्जीव, अल्प अथवा बहुत दन्त शोधन मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आज्ञा लिए बिना ग्रहण नहीं करते। ३७२. अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी। कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मियं भूमि परक्कमे॥ गोचरी के लिए जानेवाला मुनि वर्जित भूमि में प्रवेश न करे। कुल की भूमि को जानकर मितभूमि में प्रवेश करे। ३७३. मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गिं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥ अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महान् दोषों का समूह है। इसलिए निग्रंथ मैथुन-संसर्ग का वर्जन करते हैं। ३७४. मादु-सुदा-भगिणीव य, दह्रणित्थित्तियं य पडिरूवं। इत्थिकहादिणियत्ती, तिलोयपुज्जं हवे बंभं॥ वृद्धा, बालिका और युवती स्त्री के इन तीन रूपों तथा इनके प्रतिरूपों (चित्रों या मूर्तियों) को देखकर माता, पुत्री और बहन के रूप में देखना और स्त्री-कथा आदि से निवृत्त होना ब्रह्मचर्य-व्रत है। यह तीनों लोकों में पूज्य है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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