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समणसुत्तं
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अ. २ : मोक्षमार्ग ३५७. पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं। लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए जत्तत्यं गहणत्थं च, लोगे लिंग-पओयणं॥ नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है।
जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए और 'मैं साधु हूं' ऐसा ध्यान आते रहना-लोक में वेष-धारण के ये प्रयोजन हैं।
३५८. पासंडी-लिंगाणि व,
___गिहि-लिंगाणि व बहु-प्पयाराणि। घित्तुं वदंति मूढा,
लिंगमिणं व मोक्ख-मग्गो ति॥
लोक में साधुओं तथा गृहस्थों के नाना प्रकार के लिंग प्रचलित हैं जिन्हें धारण करके मूढजन ऐसा कहते हैं कि अमुक लिंग वेश मोक्ष का कारण है।
३५९. पुल्लेव मुट्ठी जह से असारे,
___ अयन्तिए कूड-कहावणे वा। राढामणी वेरुलिय-प्पगासे,
अमहग्यए होइ य जाणएसु॥
जो पोली मुट्ठी की भांति निस्सार है, खोटे सिक्के की भांति अयन्त्रित है, कांचमणि होते हुए भी वैडूर्य जैसे चमकता है, वह जानकार व्यक्तियों की दृष्टि में मूल्यहीन होता है।
३६०. भावो हि पढम-लिंग,
ण कव्व-लिंगं च जाण परमत्थं। __ भावो कारण-भूदो,
गुण-दोसाणं जिणा बिंति॥
भाव ही मुख्य लिंग है। द्रव्य लिंग परमार्थ नहीं है, क्योंकि जिन-वाणी के अनुसार भाव ही गुण और दोष का कारण होता है।
३६१. भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिर-गंथस्स कीरए चाओ।
बाहिर-चाओ विहलो.अभंतर-गंथ-जत्तस्स॥
भावों की विशद्धि के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके अंतःकरण में परिग्रह की ग्रंथि है, उसका बाह्य परिग्रह का त्याग अर्थ-हीन होता है।
३६२. परिणामम्मि असुद्धे, गंथे मुंचेइ बाहिरे य जई।
बाहिर-गंथ-च्चाओ,भाव-विहणस्स किं कुणइ?॥
अशुद्ध परिणाम (भावधारा) के रहते हुए यदि बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है, उस भाव-शून्य व्यक्ति का बाह्य परिग्रह-त्याग क्या हित करेगा?
३६३. देहादि-संग-रहिओ,
___माण-कसाएहिं सयल-परिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रओ,
स भावलिंगी हवे साहू॥
जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जिसकी आत्मा आत्मा में रत है, वह साधु भाव-लिंगी होता है।
व्रत सूत्र
- व्रत सूत्र
३६४. अहिंस-सच्चं च अतेणगं च,
तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च। पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि,
चारिज्ज धम्मं जिण-देसियं विऊ॥
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- इन पांच महाव्रतों को स्वीकार कर ज्ञानी पुरुष जिन-उपदिष्ट धर्म का आचरण करे।