________________
आत्मा का दर्शन
खण्ड-५
३४८. गारवेसु कसाएसु, दंड-सल्ल-भएसु य।
नियत्तो हास-सोगाओ, अनियाणो अबन्धणो॥
वह गौरव, कषाय, दंड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त, निदान और बंधन से मुक्त रहे।
३४९. अणिस्सिओ इह लोए, परलोए अणिस्सिओ।
वासी-चन्दण-कप्पो य, असणे अणसणे तहा॥
वह इसलोक व परलोक में अनासक्त, बसूले से छीलने या चंदन का लेप करने पर तथा आहार के मिलने या न मिलने पर सम रहे।
३५०. अप्पसत्थेहिं दारेहिं. सव्वओ पिहियासवो। अप्रशस्त द्वारों से आनेवाले कर्म पुद्गलों का सर्वतो. अज्झप्पज्झाण-जोगेहिं, पसत्थ-दम-सासणे॥ निरोध करने वाला, अध्यात्म-ध्यान योग से प्रशस्त एवं
उपशम-प्रधान शासन में रहे।
३५१. खहं पिवासं दुस्सेज्जं, सीउण्हं अरई भयं।
अहियासे अव्वहिओ, देहे-दुक्खं महाफलं॥
भूख, प्यास, दुःशय्या-विषम भूमि पर सोना शीत. उष्ण, अरति और भय को अव्यथित चित्त से सहन करे। क्योंकि देह में उत्पन्न दुःख को सहन करना महाफल का हेतु होता है।
३५२. अहो निच्चं तवोकम्म. सव्वबुद्धेहिं वणियं।
जा-य लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं॥
अहो, सभी तीर्थंकरों ने श्रमणों के लिए संयम के अनुकूल-वृत्ति और देह पालन के लिए एक बार भोजन-इस नित्य तपःकर्म का उपदेश दिया है। ..
३५३. किं काहदि वणवासो,
कायकिलेसो विचित्त- उववासो। अज्झयण-मोण-पहुदी,
समदा-रहियस्स समणस्स।
वनवास, कायक्लेश, नानाविध-तप, अध्ययन और मौन-ये सब समता-रहित श्रमण का क्या हित करेंगे?
३५४. बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गामगए नगरे व संजए।
संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम! मा पमायए॥
तू गांव या नगर में संयत, बुद्ध और उपशांत होकर विचरण कर, शांति मार्ग को बढा। हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद.मत कर।
३५५. न हु जिणे अज्ज दिस्सई,
बहमए दिस्सई मग्गदेसिए। संपइ नेयाउए पहे,
समयं गोयम! मा पमायए॥
'आज जिन दिखाई नहीं दे रहे हैं। जो मार्ग-दर्शक हैं वे एक मत नहीं हैं'-अगली पीढी को इस कठिनाई का अनुभाव होगा, किन्तु अभी मेरी उपस्थिति में तुझे पार ले जाने वाला पथ प्राप्त है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।
वेश लिंग
वेश-लिंग
३५६. वेसो वि अप्पमाणो,असंजम पएसु वट्टमाणस्स।
किं परियत्तिय-वेस, विसं न मारेइ खज्जंतं॥
असंयम स्थान में वर्तमान श्रमण का वेश प्रमाण नहीं होता-वेश श्रामण्य का मानदंड नहीं होता। क्या रूपांतरित खाया हुआ विष खाने वाले को नहीं मारता ?