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संबोधि
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६७. प्रेक्षया -
'सत्यसंप्रेक्षा,
तत्प्राप्तिश्चानुप्रेक्षया । पुनः पुनस्तदभ्यासाद्, भावना जायते ध्रुवम् ॥
॥ व्याख्या ॥
प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा दो शब्द है। प्रेक्षा प्रथम है और अनुप्रेक्षा है उसके बाद होनेवाली चिंतनधारा । एक में सत्य का स्पर्श होता है और दूसरे में सत्य की पृष्ठभूमी सुदृढ़ होती है। अनुप्रेक्षा का अभ्यास भावना में बदल जाता है। भावना संस्कारों को बदलती हैं, दृढबद्ध मिथ्या धारणा को विखंडित करती है, सत्य के साक्षात्कार में उसकी अहं भूमिका होती है । चित्त को विशुद्ध बनाती है। आज की भावना कल का साकार दर्शन है । यथार्थ की भावना से भावित चित्त यथार्थ अनुभव करता है।
साधना के क्षेत्र में भावना का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह सकारात्मक सोच का प्रकृष्टतम रूप है, साधक के आंतरिक ऐश्वर्य के प्रकटन में इसकी भूमिका असंदिग्ध है। इसका अवलंबन प्रायः साधकों के लिए अनिवार्य बन जाता है। जाने-अनजाने इस मार्ग से उन्हें चलना ही होता है ।
६८. अनित्यो नाम संसारः, त्राणाय कोऽपि नो मम । भवे भ्रमति जीवोऽसौ, एकोऽहं देहतः परः ॥ ६९. अपवित्रमिदं
गात्रं, कर्माकर्षणयोग्यता । निरोधः कर्मणां शक्यो, विच्छेदस्तपसा भवेत् ॥
अ. १२ : ज्ञेय- हेय - उपादेय
प्रेक्षा से सत्य का दर्शन होता है। सत्य की उपलब्धि क्रियान्वयन अनुप्रेक्षा- अनुचिंतन अथवा स्वतःसूचना से होती है। अनुप्रेक्षा का बार-बार किया जाने वाला अभ्यास भावना बन जाता है।
७०. धर्मो हि मुक्तिमार्गोऽस्ति, सुकृता लोकपद्धतिः । दुर्लभा वर्तते बोधिः, एता द्वादशभावनाः ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् )
७१. मैत्री सर्वत्र सौहार्द, प्रमोदो गुणिषु स्फुरेत् । करुणा कर्मणात्तेषु, माध्यस्थ्यं प्रतिगामिसु ॥
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१. संसार अनित्य है - यह चिंतन अनित्य भावना है। २. मेरे लिए कोई शरण नहीं है - यह चिंतन अशरण भावना है । ३. यह जीव संसार में भ्रमण करता है - यह चिंतन भव भावना है। ४. 'मैं एक हूं' - यह चिंतन एकत्व भावना है। ५. 'मैं देह से भिन्न हूं' - यह चिंतन अन्यत्व भावना है । ६. शरीर अपवित्र है - यह चिंतन अशीच भावना है। ७. आत्मा में कर्मों को आकृष्ट करने की योग्यता है - यह चिंतन आस्रव भावना है। ८. कर्मों का निरोध किया जा सकता है - यह चिंतन संवर भावना है। ९. तप के द्वारा कर्मों का क्षय किया जा सकता है - यह चिंतन तप भावना है। १०. मुक्ति का मार्ग धर्म है - यह चिंतन लोक भावना है। ११. लोक पुरुषाकृति वाला है - यह चिंतन लोक भावना है। १२. बोधि दुर्लभ है - यह चिंतन बोधिदुर्लभ भावना है। ये बारह भावनाएं हैं।
१. सब जीव मेरे सुहृद् हैं - यह चिंतन मैत्री भावना है । २. गुणी व्यक्तियों के प्रति अनुराग होना प्रमोद भावना है। ३. कर्मों से आर्त्त बने हुए जीव दुःख से मुक्त बनें - यह चिंतन करुणा भावना है। ४. प्रतिकूल अथवा विपरीत वृत्ति वाले व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा रखना यह माध्यस्थ भावना है।'
७२. संस्काराः स्थिरतां यान्ति, चित्तं प्रसादमृच्छति । वर्धते समभावोऽपि, भावनाभिर्ध्रुवं नृणाम्॥
१. इन चार भावनाओं के योग से भावनाएं सोलह '१२+४' होती हैं।
इन भावनाओं से संस्कार स्थिर बनते हैं, चित्त प्रसन्न होता है और समभाव की वृद्धि होती है।