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________________ आत्मा का दर्शन ६३. पदे पदे निधानानि, योजने भाग्यहीना न पश्यन्ति, बहुरत्ना ६४. पदे पदे सदानंदः, शक्तिस्रोतः ध्यानहीना न पश्यन्ति बहुरत्नं ३०६ रसकूपिका । वसुन्धरा ॥ पदे पदे । ६५. उपधीनाञ्च भावानां परित्यक्तो भवेद् यस्य शरीरकम् ॥ ॥ व्याख्या || वसुंधरा-वसु का अर्थ है-रत्न, हीरे, आदि । पृथ्वी इन्हें धारण करती है, अतः इसे वसुंधरा कहते हैं। इसमें अगणित धनराशि है। लेकिन प्राप्त उसे ही होती है, जो पुण्यशाली है, भाग्यवान है, भाग्य हीन को नहीं । भाग्य की अनुकूलता हो तो व्यक्ति के लिए वह सुलभ है। वह कहां से कहां छलांग लगा लेता है और भाग्य प्रतिकूल हो तो जो है उससे भी हाथ धो बैठता है। ठीक इसी प्रकार मानव शरीर बहुत रत्नों का खजाना है। उससे जैसे बाह्य सामग्री प्राप्त होती है वैसे ही अंतः समृद्धि। दोनों का माध्यम शरीर है। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' - धर्म - साधना का प्रथम साधन देह है। इसी शरीर से साधक भगवान् बनता है। शरीर में जो शक्ति है वह आत्म चेतना की है। अनंत आनंद, अनंत ज्ञान, अनंत बल का दर्शन इसी में होता है। इनके अतिरिक्त गौण शक्तियां भी कम नहीं हैं। जितनी भी विस्मयकारक चेष्टाएं, दृश्य, चमत्कार, विशिष्ट शक्तियां परिलक्षित होती हैं, उन सबका आधार शरीर ही है। इन सबकी अभिव्यक्ति का साधन है ध्यान खण्ड-३ प्रत्येक पद पर निधान है, प्रत्येक योजन पर रसकूपिका है। भाग्यहीन उन्हें देख नहीं पाते। यह वसुन्धरा बहुत रत्न वाली है। चित्त जैसे-जैसे सघन होता जाता है वैसे-वैसे दिव्यताएं प्रकट होती जाती हैं। ध्यान भाग्य है। भाग्यवान को विशेष वस्तुएं, विशिष्टताएं प्राप्त होती हैं वैसे ध्यानवान व्यक्ति को ही आत्मास्थित अनन्त क्षमताएं उपलब्ध होती हैं देव और देवियां सेवा में उपस्थित रहकर अपने को धन्य मानती हैं। अष्टसिद्धि और नवनिधि भी उनके चरण चूमती है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस इनसे संपन्न थे । आचार्य शांतिसागर के पास जया, विजया, अपराजिता, लक्ष्मी - चार देवियां हाजिर रहती थीं। पदमावती और सरस्वती भी उनकी सन्निधि का लाभ लेती थी। भक्त नरसिंह के 'मायेरे' की बात प्रसिद्ध है। भक्त रैदास ने कठौती में गंगा को प्रकट कर दिया था तब से यह कहावत भी चल पड़ी की 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' प्रत्येक पद पर आनंद है और प्रत्येक पद पर शक्ति का स्रोत है। ध्यानहीन उन्हें देख नहीं पाते। यह शरीर बहुत रत्न वाला है। भगवान् महावीर, गौतम गणधर, महात्मा बुद्ध, कबीर, नानक, दादू, मीरा, सीता, सुभद्रा, आचार्य भिक्षु आदि असंख्य विभूतियों के बिखरे बीजों को संगृहीत किया जाए तो ग्रंथों के ग्रंथ भरे जा सकते हैं। यह सब ध्यान, भक्ति, जय की शक्तियों का ही प्रभाव है। क्रोधादीनां परिग्रहः । व्युत्सर्गस्तस्य जायते ॥ । ६६. भावनाभाविते चित्ते, ध्यानबीजं प्ररोहति । संस्काराः परिवर्तन्ते, चिन्तनं च विशुद्धयति ॥ उपधि-वस्त्र, पात्र, भक्त-पान तथा क्रोध आदि के परिग्रह के परित्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। व्युत्सर्ग उस व्यक्ति के होता है, जिसके उक्त परिग्रह परित्यक्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ वस्तुएं बंधन नहीं होतीं। बंधन है आसक्ति । वस्त्र, पात्र, आहार आदि शारीरिक सहायक सामग्री है। अनासक्त वशा में इनका उपयोग होता है तो ये संयमपोषक बन जाती हैं, अन्यथा शरीरपोषक शरीरपोषण आत्म धर्म नहीं है। आत्म-धर्म है संयम संयम की साधना में रत साधक देहाध्यास का परित्याग कर आत्मोपासना में दृढ़ होता है व्युत्सर्ग की साधना के बिना देहाभ्यास, ममत्व और आकर्षण छूटता नहीं। जो चित्त भावना से भावित होता है, उसमें ध्यान का बीज अंकुरित होता है, संस्कारों का परिवर्तन होता है और चित्त विशुद्ध बनता है।.
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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