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संबोधि
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अ. १२ : ज्ञेय हेय - उपादेय
कार्य को हम अपने ध्यान में लेकर फिर इन्हें सुव्यवस्थित रखने का प्रयत्न करें तो कायसिद्धि सहज प्राप्त हो सकती है। पंच प्राणों की अवस्थिति तथा कार्य
१. प्राण-शरीर में कंठ से लेकर हृदय पर्यन्त जो वायु कार्य करता है, उसे 'प्राण' कहा जाता है।
कार्य–यह प्राण नासिका मार्ग, कंठ, स्वर-तंत्र, वाक्-इन्द्रिय, अन्ननलिका, श्वसन तंत्र, फेफड़ों एवं हृदय को क्रियाशीलता तथा शक्ति प्रदान करता है।
२. अपान-नाभि के नीचे से लेकर पैर के अंगुष्ठ पर्यन्त जो प्राण कार्यशील रहता है, उसे 'अपान' प्राण कहते है। कार्य - शरीर में संगृहीत हुए समस्त प्रकार के विजातीय तत्त्वों अर्थात् मल व मूत्र आदि को बाहर कर देह - शुद्धि का कार्य 'अपान प्राण' करता है।
लेकर सिर पर्यन्त देह में अवस्थित प्राण को 'उदान' कहते है ।
३. उदान - कंठ के ऊपर से कार्य-कंठ से ऊपर शरीर के समस्त अंगों - नेत्र, श्रोत्र, नासिका व सम्पूर्ण मुख मंडल को ऊर्जा व आभा प्रदान कर है । पिच्युटरी व पिनियल ग्रंथि सहित पूरे मस्तिष्क को 'उदान' प्राण क्रियाशीलता प्रदान करता है। ४. समान - हृदय के नीचे से लेकर नाभि पर्यन्त शरीर में क्रियाशील प्राण को 'समान' कहते है।
कार्य यकृत, आन्त्र, प्लीहा व अग्न्याशय (Pancreas) सहित सम्पूर्ण पाचन तंत्र की आंतरिक कार्य प्राणाली को नियंत्रित करता है।
५. व्यान - यह जीवनी प्राण-शक्ति पूरे शरीर में व्याप्त है। यह शरीर की समस्त गतिविधियों को नियमित तथा नियंत्रित करता है। सभी अंगों, मांस पेशियों, तन्तुओं, संधियों एवं नाड़ियों को क्रियाशीलता व ऊर्जा शक्ति 'ब्यानप्राण' ही करता है।
इन पांच प्राणों के अतिरिक्त शरीर में 'देवदत', 'नाग', 'कृकल', 'कूर्म' व 'धनजय' नामक पांच उपप्राण हैं जो क्रमशः छींकना, पलक झपकना, जंभाई लेना, खुजलाना तथा हिचकी लेना आदि क्रियाओं को संचालित करते हैं।
वायु-प्राण और मन का संघर्ष सतत चलता रहता है। अनेक लोग इसे नहीं जानते है और यह भी नहीं जानते कि इस संघर्ष में विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है। अन्य युद्धों से यह युद्ध अति विकट है। इसमें दूसरा कोई नहीं होता। स्वयं को स्वयं की वृत्तियों के साथ युद्ध करना होता है और उस पर विजय प्राप्त करनी होती है। प्राण में जब मन लय होता है तब तमोगुणं की वृत्तियां जोर पकड़ लेती है। व्यक्ति उनके अधीन हो जाता है। मन में यदि प्राण का लय होता है तब सृतोगुण की वृद्धि होती है। संकल्प विकल्पों की अवस्था में मन प्राण के द्वारा कार्य करने लगता है। उस अवस्था में प्राण की गति सामान्य रहती है। किन्तु संकल्प-विकल्प होने लगते हैं। तमोगुण की स्थिति में श्वास की गति तेज हो जाती है। मन और प्राण का परस्पर घनिष्ट संबंध है। कहा है-'चले प्राणे चलं चित्तं प्राण के चंचल होने पर चित्त चंचल हो जाता है और प्राण के स्थिर होने पर मन स्थिर हो जाता है।
श्वास का संयम व श्वासप्रेक्षा के प्रयोग में कुशलता हासिल कर लेने पर मन की सिद्धि व कायसिद्धि दोनों सहज प्राप्त की जा सकती हैं। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर तथा मन इनके नियमन में प्राणायाम व प्राण की स्थिरता महत्त्वपूर्ण है। श्वास स्थिर व शांत होगा उतना ही अधिक व्यक्ति स्वस्थ तथा शांति का अनुभव करेगा। श्वास की संख्या भी औसत से कम होने लगेगी। श्वास दीर्घ होगा तो आयुष्य भी दीर्घ होगा। आयुष्य भी सांसों के साथ बंधा हुआ है। प्राणों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्राणायाम का प्रयोग तथा श्वास के साथ मन को संयुक्त कर उसी पर एकाग्र रहने का अभ्यास किया जाए तो सहज में ही व्यक्ति आत्म विजेता बन सकता है।
६२. प्राणे संसाधिते सम्यक् कायसिद्धिर्भवेत् ध्रुवम् । श्वासे संसाधिते सम्यक्, मनःसिद्धिर्भवत् ध्रुवम् ॥
प्राण, अपान आदि पंचविध प्राणशक्ति की सम्यक् साधना कर लेने पर निश्चित रूप से कायसिद्धि हो जाती है। श्वास की सम्यक् साधना कर लेने पर निश्चित रूप से मन की सिद्धि हो जाती है।