SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन ३०४ खण्ड-३ ५९.अध्यवसायो सूक्ष्मा चित्, लेश्या भावः ततः स्फुटम्। अध्यवसाय सूक्ष्म चेतना है। लेश्या अथवा भाव की चेतना चित्तं स्थूलशरीरस्थं, इमाः चैतन्यभूयः॥ उससे प्रस्फुट-व्यक्त है। स्थूल शरीर में काम करने वाला चेतना चित्त है। ये चैतन्य की भूमिकाएं हैं। ॥ व्याख्या ॥ चेतना एक है। वह अनावृत नहीं है इसलिए उसकी रश्मियां सीधी प्रसारित नहीं है। उसे माध्यम चाहिए। वह कई . माध्यमों से प्रकट होती है। उसेके सबसे निकट का सूक्ष्मतम माध्यम है-अध्यवसाय। चेतना की पहली हलचल का यही उद्गम है। अध्यवसाय अथाह जलराशि के नीचे बुदबुदे के रूप में उठने वाला प्रथम स्पन्दन है। उसका आकलन करना दुःसाध्य है। उसके बाद वह लेश्या और भाव के रूप में प्रस्फुट होता है। कृष्ण, नील, लाल, सफेद आदि रंगों के रूप से. पहचाना जाने वाला परिणाम लेश्या है। भाव उससे कुछ ओर अधिक व्यक्त है, किन्तु इन दोनों का बोध साधारण जनों के गम्य नहीं है। हालांकि वैज्ञानिक उपकरणों ने इसे पकड़ने का प्रयास किया है, सफलता भी प्राप्त की है। ___ चित्त चेतना का स्पष्ट रूप है। स्थूल शरीर में वही काम चित्त से ही मन द्वारा संचालित होता है। वाणी और शरीर पर नियमन करने वाला मन है। चेतना की ये भूमिकाएं हैं। अध्यवसाय शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार का है। अशुद्ध अध्यवसाय से आगे का समग्र ज्ञान अशुद्ध रूप में ही कार्यशील होता है। रजस् और तमस् के रूप में इनकी परिणति देखी जा सकती है। अशुद्ध वृत्तियां जीवन विकास में सहगामी नहीं बनती। अशुद्ध जीवन वर्तमान और भविष्य दोनों के आनंद को लीलने वाला होता है। साधक का पहला कार्य है कि वह अशुद्ध अध्यवसायों को प्रशस्त करने का प्रयत्न करें। अध्यवसाय शुद्धि के बिना न मन की शुद्धि होती है, न भाव की और न लेश्या की। साधक को इसे स्मृति में रखना चाहिए कि मुझे सबसे पहले मन को पवित्र-विशुद्ध बनाना है। मन के विशद-प्रशस्त होने के साथ समूचा तंत्र शुद्धि की दिशा में गतिशील हो जाता है। संत कबीर ने कहा है-: 'कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। पीछे पीछे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥' यही, इसी सत्य का चित्रण है। ६०.मनःप्रवर्तकं चित्तं, वाणीदेहनियामकम्। प्रशस्तेऽध्यवसाये तु, प्रशस्ताः स्युरिमे समे॥ ६१.मनःशुद्धौ भावशुद्धिः लेश्याशुद्धिस्ततो भवेत्। अध्यवसायशुद्धिश्च, साधनायाः अयं क्रमः॥ चित्त मन का प्रवर्तक है। वह वाणी और शरीर का नियामक है। अध्यवसाय के प्रशस्त होने पर ये सब प्रशस्त हो जाते हैं। मन की शुद्धि होने पर भाव की शुद्धि होती है। भाव की शुद्धि होने पर लेश्या की शुद्धि होती है और लेश्या की शुद्धि होने पर अध्यवसाय की शुद्धि होती है। यह साधना का क्रम है। ॥ व्याख्या ॥ साधना मार्ग में कायसिद्धि और मनःसिद्धि दोनों अपेक्षित हैं। कायसिद्धि का अर्थ है-शरीर की पूर्णरूपेण स्वस्थता, वात, पित्त आदि दोषों का संतुलन, शरीर का समग्र कार्य कलाप सुचारू रूप से संचालित होना, इसी प्रकार मनःसिद्धि का अर्थ है-मन की निर्मलता, एकाग्रता, शांतता, स्थिरता, वासना-विकार, ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार आदि दोषों से मुक्तत है। पंच प्राणों पर नियंत्रण से काय-सिद्धि होती है और श्वास को सम्यक् साध लेने पर मन की सिद्धि प्राप्त होती है। शरीर पंचभूतात्मक है, पंच तत्त्वों से निर्मित हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। वायु तत्त्व ही प्राण है। प्राण के द्वारा ही समस्त शरीर और मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि सक्रिय रहते हैं। प्राण, अपान आदि पांच मुख्य प्राण तथा पांच उपप्राण वायु के ही अलग अलग स्थानों से अलग-अलग नाम हैं। प्राणों के अशुद्धि से शरीर अस्वस्थ होता है, आलस्य, प्रमाद आदि दोषों से युक्त होता है। इससे प्राणमय कोश और अन्नमयकोश भी विकृत होता है। पांच प्राणों के स्थान और
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy