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________________ संबोधि ३०३ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय ॥ व्याख्या ॥ प्रेक्षा का अर्थ है-निर्विकल्प रूप से देखना, जिस देखने में राग-द्वेष न हो, संकल्प-विकल्प न हो, मात्र देखना ही हो, वह है प्रेक्षा। अपने द्वारा अपने को-आत्मा को देखना है। आत्मा की अनुभूति या साक्षात् उस शांत व निर्विकल्प अवस्था में ही होता है। फिर जो भी साधन है-प्रयोग हैं वे सब आत्मा से ही सन्निविष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक प्रयोग लंबे अंतराल के बाद मन को अ-मन करते हैं। अ-मन अवस्था में द्रष्टा साक्षीरूप में खड़ा होता है और यह पकड़ सुदृढ़ होने पर सहज ही आत्मा की स्फुरणा होने लगती है। समाधि या आत्मानुभव की प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर स्थिति शुक्लध्यान-(ध्यान की उच्च-उच्चतम अवस्था) में परिणत हो जाती है। ५६.व्याधिमाधिमुपाधिञ्च, समतिक्रम्य यत्नतः। प्रेक्षाध्यान की सिद्धि में परायण व्यक्ति व्याधि, आधि और समाधि - लभते प्रेक्षाध्यानसिद्धिपरायणः॥ उपाधि का प्रयत्नपूर्वक अतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ प्रेक्षाध्यान की साधना में संलग्न साधक उत्तरोत्तर विकास करते हुए समाधि में स्थित हो जाता है। समाधि ध्यान की वह अवस्था है जहां मन, वाणी, शरीर, भावधारा आदि सब शांत हो जाते है। ऐसी निष्पन्न स्थिति का साधक 'साधो! सहज समाधि भली' कबीर की इस वाणी में जीने लगता है। वह व्याधि (शारीरिक कष्ट) आधि (मानसिक दुःख) और उपाधि-भावात्मक कष्ट-इन सबका सहज ही अतिक्रमण कर जाता है। .. ध्यान का प्रारंभ काय-स्थिरता से होता है। शरीर अस्थिर है, चंचल है तो हमारा मन भी स्थिर नहीं होता। साधक के लिए शरीर का स्थैर्य साधना भी आवश्यक है। अनुभवी पुरुषों ने कहा है-तीन घंटा एक आसन में स्थिर बैठने से आसन सिद्ध होता है। सिद्ध आसन का होना ध्यान के लिए उत्तम है। शरीर की अस्थिरता मन को एक विषय में केन्द्रित नहीं होने देती। विकेन्द्रित मन शक्ति के ऊर्ध्वगमन में अवरोधक है। . काया की स्थिरता के लिए कायोत्सर्ग और काय-गुप्ति का अभ्यास अपेक्षित है। काय-गुप्ति का अर्थ है-शरीर की हलन-चलन का गोपन-संयम। अभ्यास के द्वारा इसे साधा जा सकता है। दृढ़ अभ्यास से स्थिरता सिद्ध हो जाती है। कायोत्सर्ग शरीर को स्थिर करता है और साथ-साथ भेदविज्ञान का हेतु भी बनता है। काय-उत्सर्ग इन दो शब्दों के संयोग से कायोत्सर्ग बनता है। जिसका अर्थ है-शरीर का विसर्जन करना, शरीर के प्रति कुछ समय उदासीन हो जाना, शरीर के स्पन्दनों-गति आदि को पूर्णतया शांत कर देना। महर्षि रमण के जागरण का मूल केन्द्र-बिन्दु यही प्रयोग बना। उन्होंने देखा-शरीर मृतवान् पड़ा है। मैं उसे देख रहा हूं। द्रष्टा भिन्न और दृश्य भिन्न है। दोनों एक नहीं हैं। दोनों के एकत्व की ग्रंथि खुल गई और वे सम्यक् बोध को प्राप्त हो गये। देह की स्थिरता से आस्रव-कर्म आगमन का मार्ग पतला होता है, द्वार बन्द होने लगता है। कर्म का आगमन ही संसार का मूल है। कर्म-वासना की क्षीणता से संसार क्षीण होता है। देह की स्थिरता साधना में कितनी अपेक्षित है, इससे यह स्वतः सिद्ध होती है। ५७. कायोत्सर्गः कायगुप्तिः देहस्थैर्याय जायते। कायोत्सर्ग और कायगुप्ति देह की स्थिरता के लिए है। काया • स्थैर्य सम्यक् गते काये, आस्रवः प्रतनुर्भवेत्॥ के भलीभांति स्थिर होने पर आसव पतला हो जाता है। १८.श्वासादीनां च संप्रेक्षा, मनःसंयममाव्रजेत। श्वास आदि की संप्रेक्षा से मन का संयम प्राप्त होता है। मन ऐकाये सघने जाते, ध्यानं स्यान्निर्विकल्पकम्॥ की एकाग्रता के सघन होने पर निर्विकल्प ध्यान सिद्ध हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ निर्विकल्प ध्यान के लिए सघन एकाग्रता की अपेक्षा रहती है। श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, सुषुम्मा नाड़ी-स्थित चैतन्य केन्द्रों (चक्रों) पर, अंतर्मोन आदि किसी भी एक आलंबन पर लंबे समय तक मन को स्थिर करने से सधती है, इसलिए साधक में तीव्र साधना की पिपासा हो, उन्हें एक ही प्रयोग पर अधिक श्रम करना चाहिए, उसे ही अपना ध्यानबिन्दु बनाना चाहिए, इससे निश्चित ही निर्विकल्पता की सिद्धि होती है तथा अनेक अनुभवों की प्राप्ति भी होती है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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