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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
विचार-संयम-संकल्प, चिंतन और स्मृति-ये मन के कार्य है। मन के पास यह शक्ति नहीं है कि वह विवेक कर सके इनमें कौन-सा करणीय है और कौनसा करणीय नहीं है। वह पशु की भांति जुगाली करता रहता है। इससे उसकी कुछ हानि नहीं होती, किन्तु ऊर्जा का व्यर्थ दुरुपयोग होता रहता है। एक क्षण भी वह विश्राम नहीं लेता। आवश्यकअनावश्यक विचारों की श्रृंखला चलती रहती है। इससे उसके सबल बनने की कल्पना नहीं की जा सकती। उसका संयम-नियंत्रण हो, विवेक चेतना जागृत हो, होश-सचेतनता का अभ्यास हो तो मन पर अंकुश लग सकता है, वह कल्पना आदि से मुक्त हो सकता है। इससे उसकी शक्ति का संवर्धन भी होगा और शांति की प्राप्ति भी होगी।
संवेदन नियमन-जीवन में प्रिय और अप्रिय दोनों प्रकार के प्रसंग आते हैं। उनकी प्रतिक्रिया भी प्रिय और अप्रिय दोनों रूपों में होती है। मन इन संवेदनों से प्रभावित होता है। कुछ संवेग क्षणिक होते हैं और कुछ चिरकालीन बन जाते हैं। अवचेतन मन में इन संवेदनों का स्थायित्व बन जाता है। पुनः मन इनके प्रभाव में आकर उसी प्रकार के भावों के रूप में प्रतिफलित होने लगता है। मन को शक्तिशाली बनाये बिना उन पर नियंत्रण नहीं हो सकता। संवेदना के नियमन में भी संकल्प शक्ति का और अप्रमत्त चेतना की अपेक्षा रहती है जिससे सहज ही संयम सध जाता है।
आवेग-निरोध-यह प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि वह क्रोध आदि आवेगों का वशवर्ती बन अनेक अप्रिय कार्य कर लेता है, जिसका परिणाम स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए भी दुःखद बन जाता है। पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक जीवन भी आवेगों से अछूता नहीं है। छोटे-बड़े सभी पर इसकी छाया है। बड़े व्यक्तियों का आवेग बड़े पैमाने पर सर्जित होता है, जिसका नतीजा भी बड़ा होता है। कलह, कदाग्रह, युद्ध आदि इसके प्रत्यक्ष निदर्शन हैं। आवेग का संयम बहुत कम व्यक्ति कर पाते हैं। मैं इसके प्रति सहज रहूंगा और इसके वशवर्ती नहीं बनूंगा-इस भावना से इसका निरोध कर इस पर विजय पाई जा सकती है।
शिथिलीकरण और संकल्प शक्ति-इनका प्रयोग भी मन को सबल बनाने में नितांत सहयोगी बनते हैं। शरीर को तनाव-मुक्त करना, रिलेक्स करना आटो-सजेशन-स्वतः सूचना के द्वारा-शरीर के प्रत्येक अंग तनाव मुक्त हो रहे हैं। इस सूचना के साथ मन भी जुड़ा हुआ हो और हमारा ध्यान भी शरीर के प्रत्येक अंग के प्रति सजग रहे तो धीरे-धीरे शरीर और मन दोनों शिथिल हो जाते हैं। शरीर मन का अनुगामी है। जैसा उसको मन सूचित करना है, वह उसी प्रकार ढल जाता है। इससे सहज ही मन की सबलता संवर्धित हो जाती है।
संकल्प शक्ति के अभ्यास से भी मन की दुर्बलता का निवारण होता है। व्यक्ति जैसी भावना करता है वह वैसा ही बन जाता है। मन शक्तिशाली हो रहा है, भय, कायरता व दुर्बलता दूर हो रही है-ऐसी भावना करनी चाहिए। मन में कभी भी क्षुद्र विचारों का प्रवेश नहीं होने देना तथा नकारात्मक भावों से दूर रखना, मन को सशक्त बनाने के,सहज सिद्ध प्रयोग है।
भगवान् प्राह ५२.चिन्ताशोकभयक्रोधैः, आवेगैर्विविधैश्चिरम्।
संवेदनविचारैश्च, दुर्बलं जायते मनः॥
भगवान् ने कहा-चिंता, शोक, भय, क्रोध आदि विविध आवेग, चिरकालीन संवेदन और चिरकालीन विचार-ये मन को दुर्बल बनाते हैं।
दीर्घश्वास, चित्त का एक आलंबन पर सन्निवेश, विचारों का निरोध, संवेदन-नियंत्रण, आवेग का निरोध, शिथिलीकरण और संकल्पशक्ति का अभ्यास-ये मनोबल को बढ़ाने के उपाय हैं।
५३.दीर्घश्वासस्तथा चित्तस्यैकाग्रसन्निवेशनम्।
विचाराणां निरोधो वा, संवेदननियंत्रणम्॥ ५४.आवेगानां सन्निरोधः, शिथिलीकरणं तथा। संकल्पशक्तेरभ्यासः, मनोबलनिबंधनम्॥
(युग्मम्)
५५.आत्मनः स्वात्मना प्रेक्षा, धर्म्यध्यानमुदीरितम्।
प्रकृष्टां भूमिमापन्नं शुक्लध्यानमिदं भवेत्॥
आत्मा के द्वारा आत्मा की प्रेक्षा को धर्म्यध्यान कहा गया है। प्रेक्षा जब उत्कृष्ट भूमि पर चली जाती है, तब शुक्लध्यान कहलाती है।