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संबोधि
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अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय
॥ व्याख्या ॥ सबल मन बहुत कम लोगों के पास है, प्रायः सभी दुर्बल मन को लेकर जी रहे हैं। बहुत यह जान भी नहीं पाते हैं कि क्या मन सशक्त बन सकता है? उन्हें इसका भी बोध नहीं है कि मन दुर्बल क्यों होता है? यह बहुत आवश्यक है कि व्यक्ति पहले दुर्बल मन के कारणों को जाने और फिर सशक्त बनाने का उपक्रम करें।
मन के दर्बल होने के कारण बहत साफ हैं। आये दिन मनुष्य इन्हीं में से गुजरता है-बच्चे भी बचपन में इसके शिकार हो जाते है। फिर वह संस्कार आगे से आगे पुष्ट होता चला जाता है। भय, शोक, चिंता, क्रोधादि आवेग, संवेदन और चिरकालीन विचार ये कारण हैं।
उपरोक्त कारणों से मुक्त मनुष्य का मिलना दुर्लभ है। पारिवारिक सामाजिक, राजनैतिक, वैश्विक वातावरण ही ऐसा है कि जो इन कारणों को उत्तेजित कर देते हैं। मनुष्य यह जानता है कि जो होने का है वह होगा, लेकिन फिर भी स्वसंबंधी, परिवार संबंधी तथा अन्यान्य प्रकार की चिंता उसे घेरे रहती है। भोजन, पानी, अर्थ, शादी-विवाह, संतान आदि की चिंता आगे से आगे एक न एक बनी रहती है। चिंता चिता-सम है। वह मन को बलवान् नहीं बनने देती है। इसका दुष्प्रभाव तनाव, बीमारियों आदि के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगत होता है।
अप्रिय संवेदन, अप्रिय घटना, अप्रियता की आशंका शोक को जन्म देती है। आशंका के कारण मन में शोक का संस्कार पुष्ट होता रहता है। शोकग्रस्त मन के सशक्तता की कल्पना नहीं की जा सकती।
क्रोध आदि आवेगों के आंतरिक कारण भी हैं और बाह्य कारण भी। बाह्य कारण ज्ञान के अभाव में आंतरिक कारणों को उत्तेजित कर देते हैं। आवेग-आवेश बाहर प्रकट हो जाते हैं। क्रोध का मुख्य निमित्त बनता है-मन के अनुकूल प्रवर्तन नहीं होना। बालक से लेकर बड़े बुजुर्गों तक में यह भाव दिखाई देता है। सच्चाई यह है कि इस जगत में 'मैं जैसा सोचूं, मैं जैसा कहूं, वही हो।' यह संभव नहीं होता है तब व्यक्ति के अहं पर चोट पहुंचती है, क्रोध का वेग सहज उभर आता है।
वेगों पर नियमन न होने से संवेदन व चिंतन दीर्घकालिक बनता चला जाता है, अवचेतन मन में एक ग्रंथि निर्मित हो जाती है जिससे सहजतया छुटकारा पाना शक्य नहीं होता। जिसके मन में इनसे मुक्त होने की भावना जागृत होती है और जो अपने पर अपना अनुशासन करना चाहता है, उसके लिए मन को सशक्त बनाने की कोई कठिनाई नहीं है। जैसे ही वह जागृत होता है और उपायों का अवलंबन लेता है मन शांत संतुलित व शक्तिशाली बनने लगता है। निम्न प्रयोगों का अभ्यास मन की सशक्तता में निस्संदेह कारगार होते हैं। वे प्रयोग हैं१. दीर्घश्वास ४. संवेदन नियमन
६. शिथिलीकरण २. चित्त की एकाग्रता५.
आवेग-निरोध
७. संकल्पशक्ति। - ३. विचार-संयम
दीर्घश्वास-दीर्घश्वास का प्रयोग मन को स्थिर-शांत करता है। दीर्घश्वास के अभ्यास से शरीर, मन और भाव तंत्र तीनों को स्वास्थ्य प्राप्त होता है। मन की चंचलता इससे शांत होती है तथा आवेगों और आवेगों पर नियमन होना है। बीमारियां, अशांति, तनाव, क्रोध आदि आवेग छोटे श्वास की देन है। श्वास के साथ मन के उतार-चढ़ावों का घनिष्ठ संबंध हैं। दीर्घश्वास इनकी चिकित्सा हैं। जब मन शांत व प्रसन्न होता है तब अपने आप उसकी तेजस्विता और शक्ति का सर्वर्धन होने लगता है।
एकाग्रता-एकाग्रता की शक्ति से कौन परिचित नहीं है ? विकास में उसकी अहं भूमिका है। लक्ष्यवेध की सफलता में अर्जुन की एकमात्र एकाग्रता की ही महत्ता थी। एकाग्रता में असीम शक्ति है। उसके द्वारा जो कार्य सधते हैं उनकी कल्पना भी सामान्य व्यक्ति के सोच से परे हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में तो इसका मूल्यांकन हजारों-लाखों वर्ष पूर्व हो चुका था। विज्ञान भी आज उसकी मूल्यवत्ता स्वीकृत कर चुका है। इसका जादू सभी क्षेत्रों में है।
चित्त का एक विषय पर केन्द्रित होना एकाग्रता है। एकाग्रता के अवलंबन बाह्य भी होते हैं और आंतरिक भी। जैसे शरीर के अनेक स्थान आलंबन बनते हैं वैसे अनेक आंतरिक स्थान भी। इससे केन्द्र जागृत होते हैं और सुप्तशक्तियों का जागरण भी होता है। इससे मन को सबल बनने में सहज ऊर्जा प्राप्त हो जाती है।