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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
स्वबोध के अभाव में अज्ञान मुखर रहता है। संस्कार अज्ञान की देन है उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। वह स्वतंत्र शब्द का प्रयोग कर सकता है तथा अपने को स्वतंत्र मान भी सकता है किन्तु वस्तुतः वह स्वतंत्र है नहीं। स्वतंत्र वही व्यक्ति है जिसका अपना तंत्र अपना अनुशासन होता है। संस्कारों से संचालित व्यक्ति परतंत्र है, वह उनसे प्रवृत्त होकर नए संस्कारों का अर्जन करता है फिर वे संस्कार ही उसे सदा प्रेरित करते रहते हैं। इसलिए जितना भी दुःख दृश्य है उसके पीछे संस्कारों की प्रबल छाया है। ज्ञान और ध्यान दोनों की युति संस्कारों का परिशोधन व निस्तारण करती है। ज्ञान से समझ आती है और ध्यान पुराने संस्कारों का निष्कासन करता है और नयों को अर्जित होने नहीं देता। स्वबोध का मार्ग जिससे सहज ही सरल बन जाता है, संस्कारों का उच्छेद हो जाता है तथा दुःख का उन्मूलन भी ।
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धारणा, मान्यता, अल्पज्ञता, बाह्य परिवेश आदि पूर्वाग्रह के कारण बनते हैं । पूर्वाग्रही व्यक्ति की दृष्टि एकांगी होती है, वह दूसरों की यथार्थ बात को भी स्वीकार नहीं करता। उसके लिए वही यथार्थ है जो वह कहता है, सोचता है और करता है। उससे समस्याएं सर्जित होती हैं यह सभी क्षेत्रों में पाया जाता है अनेकांत या अनाग्रह दृष्टिकोण विकसित हो तो इसका समाधान निकल सकता है। अनेक स्थलों पर इसका प्रयोग होता भी है और वातावरण प्रिय भी बनता है। अनेकांत दृष्टिवाला व्यक्ति अन्य व्यक्ति के चिंतन से छिपे तथ्य को देखने, समझने का प्रयास करता है। वह जानता है कि अन्य व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से बात को रख रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के प्रतिद्वन्द्वी ने असेम्बली में कहा- आपको पता होगा कि आप कौन हैं? लिंकन ने मुस्कराते हुए कहा- मुझे पता है, मैं एक चमार का पुत्र हूं। हो सकता है आप की मेरे से कोई शिकायत हो, किन्तु मेरे पिता एक कुशल चर्मकार थे, मैं वैसा नहीं हूं। सामने वाला शांत हो गया। स्वबोध से आग्रह का शमन होता है, अनाग्रही दृष्टि विकसित होती है। दुःख मुक्ति के लिए ये विविध उपाय हैं, प्रयोग हैं।
'कम खाना गम खाना' – इनमें स्वास्थ्य आरोग्य का राज छिपा है। विवशता, दुर्बलता के बिना सहज शांत भाव से सहिष्णुता, मृदुता, अदम्भ, सरलता आदि सात्त्विक गुणों का अभ्यास आरोग्य के प्रमुख निमित्त बनते हैं। मन की अशुद्धि दुष्प्रवृत्तियों या असत् वृत्तियों से अर्जित है। सतोगुण-सात्त्विक, शम, दम, दया, अहिंसा, मैत्री आदि भावों के द्वारा मन का शोधन होता है। 'शिवसंकल्पमस्तु मे मनः मेरा मन शुभ- शिव संकल्प वाला हो ? यानी में सदा अपने मन को शुभ भावों से भावित करता रहूं इस प्रकार की जागृति से मन का परिशोधन होता है, शोधित मन शांत- तनावमुक्त रहता है, शरीर स्वतः ही प्रसन्न रहता है।
आरोग्य का एक बड़ा कारण है-जीवन में श्रम की प्रतिष्ठा । काम करने वाला छोटा और न करने वाला बड़ा या दूसरों के श्रम पर जीने वाला महान् - यह धारणा किसी भी दृष्टि से यथार्थ तो नहीं है, किन्तु सामाजिक परिस्थितिवश व्यक्ति इसे अपना लेता है, किन्तु स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अहितकर होती है। आज देखते हैं-श्रम घटा, रोग बढ़ा श्रम के अभाव में सहज साध्य कार्य असाध्य बन गए, अनेक बीमारियों ने शरीर पर अपना कब्जा जमा लिया। चौबीस घंटे ए. सी. में रहने वाले धनिक व्यक्ति से डॉक्टरों ने सलाह दी कि आप एक घंटा गर्म पानी में लेटे रहो, यही आपकी चिकित्सा है। उसने सोचा, दिनभर एयरकंडीष्नर बना रहूं और एक घंटा पानी में रहकर स्वस्थ बनूं, इससे अच्छा है - ए. सी. में रहना ही छोड़ दूं। उसने वैसा किया और स्वस्थ रहने लगा।
श्रम शरीर के लिए अपेक्षित है-वह देह की प्रकृति है। प्रकृति की अवहेलना करना अहितकर है। व्यायाम, योगासन, प्राणायाम आदि भी श्रम है, शरीरतंत्र को स्वस्थ रखने में ये नितांत व्यवहार्य हैं। आरोग्य के लिए इनका अनुशीलन अपेक्षित है।
मेघः प्राह
५१. जिज्ञासामि कथं नाथ! दुर्बलं जायते मनः ? कथं बलयुतं तत् स्याद्, येन शक्तिः प्रवर्धते ?
मेघ बोला नाथ! मन दुर्बल कैसे होता है? वह बलवान् कैसे बनता है? जिससे शक्ति में वृद्धि हो, यह मैं जानता चाहता हूं।