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________________ संबोधि २९९ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय ॥ व्याख्या ॥ ध्यान की परिचर्चा सुन सहज ही यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि ध्यान क्यों करे? ध्यान करने का प्रयोजन क्या है। ध्यान करने के उद्देश्य व्यक्ति की भावना के अनुरूप भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। जो कुछ प्राप्य है वह ध्यान के द्वारा ही प्राप्य है। सुख भी ध्यान के द्वारा प्राप्य है और दुःख भी, स्वर्ग भी और नरक भी, बंधन भी और मुक्ति भी। किन्तु जिस भाव से यहां चर्चा प्रस्तुत है वह सिर्फ अध्यात्म के अर्थ में है। साधक के ध्यान का उद्देश्य होता है-दुःख- मुक्ति। इसलिए कहा है-ध्यान दुःख-मुक्ति के लिए किया जाता है। मेघ के मन में फिर जिज्ञासा उभरी कि दुःख कहां से आता है ? दुःख के अनेक प्रकार हैं, उनके कारण भी अनेक हैं। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई निमित्त अवश्य होता है। यहां उन कारणों का वर्गीकरण आठ रूपों में किया गया है। समस्त दुःखों का समावेश इनमें हो जाता है। वे कारण हैं-अज्ञान, मूर्छा, चंचलता, हीनभावना, अहंकार, संस्कार। (संचित अथवा अर्जित वृत्ति), पूर्वाग्रह और रोग। इनकी निवृत्ति के उपाय भी है। अस्वास्थ्य है तो स्वास्थ्य की प्रक्रिया भी है। दोष है तो उसके निराकरण के प्रयोग भी हैं। हर क्रिया की प्रतिपक्षी क्रिया भी है। जहां चाह वहां राह की उक्ति के अनुसार प्रतिपक्षी भावना से उसका उन्मूलन किया जा सकता है। ___ अज्ञान-निवृत्ति की प्रक्रिया है-स्वबोध। यहां अज्ञान का वास्तविक संकेत आत्मज्ञान के अभाव की ओर है। अज्ञान दुःखों का मूल है। अज्ञान के उच्छेद से सब दुःखों का उच्छेद संभव है। 'सौ रोगों की एक दवा' 'सौ तालो की एक चाबी' की भांति यह स्वबोध सौ ही नहीं, हजारों-लाखों की एक चाबी है। इसमें सबका इलाज है। अज्ञान में सबकी सत्ता है और ज्ञान में सबकी असत्ता। - स्वबोध में जागरूकता की लौ सतत प्रज्वलित रहती है। मूर्छा को वहां अवकाश नहीं रहता। मूर्छा वहीं होती है जहां चित्त का बाह्य विषयों के साथ तादात्म्य होता है। पदार्थ मुख्य हो जाता है और आत्मा-चैतन्य गौण। मूर्छा उन्माद है, पागलपन है, चित्त का चेतना शून्य होना है। मूर्च्छित व्यक्ति को क्रिया-अक्रिया, कार्य-अकार्य का कोई होश नहीं रहता। उसका समग्र कार्य-कलाप करीब-करीब सुषुप्ति में होता है। मूर्छा अनेक जन्मों का अर्जित संस्कार है। स्वबोध इसे तोड़ देता है। 'मन की चंचलता भी बाहर से जुड़ी है, पुराने संस्कारों की लीक पर चलती है : स्मृति, कल्पना और चिंतन ये सब चंचलता के ही परिणाम हैं। स्व-बोध में चित्त ठहर जाता है, वह आत्म-केन्द्रित हो जाता है। चंचलता शांत हो जाती है। सुख स्वतः ही छलक आता है। मन को चेतना का अनुगामी बनाने से यह समस्या शांत हो जाती है। . स्वबोध वाले व्यक्ति में हीन भावना का प्रवेश नहीं होता। हीन भावना दूसरों के साथ तुलना करने से पैदा होती है। दूसरों में जो विशिष्टता है, अपने में नहीं है, ऐसा समझ वह अपने आपको तुच्छ मानने लगता है। इसके अनेक माध्यम बनते हैं। दुनियां में आदमी को छोड़कर कोई किसी से तुलना नहीं करता। सब अपने-अपने अस्तित्व में मस्त रहते हैं। न कोई किसी से छोटा मानता और न बड़ा। स्वबोध में छोटे-बड़े का भाव रहता ही नहीं है। वहां प्रत्येक पूर्ण है। 'णो हीणे जो अइरित्ते' न कोई हीन और न कोई विशिष्ट। यह सचाई स्वबोध से प्रकट होती है और हीन भावना जनित दुःख स्वतः ही तिरोहित हो जाता है। अहंकार भी एक वृत्ति है। वह हीन भावना की उल्टी है-हीनभाव वाला जहां अपने को क्षुद्र, साधारण मानता है वहां अहंकारी अपने को महान, बडा. विशिष्ट समझता है। यह भी कोई सुख का मूल हेतु नहीं बनती। इस विशाल जगत् में कोई एक ही हस्ती नहीं है। आत्मा की अनंत शक्ति के सामने अनेक अस्मितावान् व्यक्ति बौने बन जाते हैं। जहां वह शक्ति जिस व्यक्ति में कुछ विशिष्टता लिए हुए जागृत होती है वहां दूसरे का अहं चूर्ण हो जाता है। इस जगत् में किसका अहंकार चला है ? पूर्ण व्यक्ति अहंकार की क्षमता रखता है किन्तु वह करता ही नहीं। अपूर्ण व्यक्ति में क्षमता नहीं है और वह करता है। कहा है-संतजनों के लिए ज्ञान अहं, मद आदि के नाश का हेतु है वहां वह कुछ लोगों के लिए मान-मद आदि का हेतु बन जाता है। इस ग्रंथि से पीड़ित व्यक्ति को भी दुःख का अनुभव करना होता है। इसके पीछे भी अज्ञान का बोलबाला होता है। ध्यान के द्वारा जैसे-जैसे स्वबोध का मार्ग प्रशस्त होता है वैसे-वैसे अहंकार भी अपने बोरिया-बिस्तर समेट लेता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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