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आत्मा का दर्शन
२९८
खण्ड
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४३.सूक्ष्मक्रियोऽप्रतिपाती, समुच्छिन्नक्रियस्तथा।
क्षपयित्वा हि कर्माणि, क्षणेनैव विमुच्यते॥
सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रिय-शुक्ल-ध्यान के इन दो अंतिम भेदों में वर्तमान केवली कर्मों का क्षय कर क्षणभर में मुक्त हो जाता है।
॥ व्याख्या ॥ शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं : १. पृथक्त्व-विचार-सविचार-एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का चिंतन करना। इसमें ध्येय का परिवर्तन होता रहता है। २. एकत्व-वितर्क-अविचार-एक द्रव्य के एक पर्याय का चिंतन करना। इसमें ध्येय का परिवर्तन नहीं होता।
३. सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाती-तेरहवें गुणस्थान के अंत में होने वाला ध्यान। इसकी प्राप्ति के बाद ध्यानावस्था का पतन नहीं होता।
४. समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति-अयोगावस्था में होने वाला ध्यान। इसकी निवृत्ति नहीं होती। अंतिम दो भेद केवलज्ञानी में ही पाए जाते हैं।
४४. अन्तर्मुहूर्त्तमात्रञ्च, चित्तमेवात्र तिष्ठति।
छद्मस्थानां ततश्चित्तं, वस्त्वन्तरेषु गच्छति॥
छद्मस्थ का चित्त एक विषय में अंतर्मुहूर्त तक ही स्थिर रहता है, फिर वह दूसरे विषय में चला जाता है।
४५.स्थितात्मा भवति ध्याता, ध्यानमैकाग्रयमुच्यते। ध्यान के चार अंग हैं-ध्याता, ध्यान, ध्येय और समाधि। ध्येय आत्मा विशुद्धात्मा, समाधिः फलमुच्यते॥ जिसकी आत्मा स्थित होती है, वह ध्याता- ध्यान करने वाला
होता है। मन की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। विशुद्ध
आत्मा-परमात्मा ध्येय है और उसका फल है-समाधि। मेघः प्राह ४६.किमर्थं क्रियते ध्यानं? ध्यानं दुःखविमुक्तये। . मेघ बोला-भगवन्! ध्यान किसलिए किया जाता है? कुतो दुःखं मनुष्याणां? सर्वविद्! बोद्धमुत्सहे॥ भगवान् ने कहा-दुःख-मुक्ति के लिए। मेघ बोला-भंते ! मनुष्यों
को दुःख कहां से होता है? सर्वविद् ! यह जानने के लिए मेरे मन
में उत्साह उमड़ रहा है। भगवान् प्राह ४७.अज्ञानं प्रथमं मूर्छा, चाञ्चल्यं हीनभावना। भगवान् ने कहा-हे महाभाग! दुःख के आठ हेतु हैं-अज्ञान,
अहंकारश्च संस्कारः, पूर्वाग्रहस्तथामयः॥ मूर्छा, चंचलता, हीनभावना, अहंकार, संस्कार', पूर्वाग्रह और ४८.अष्टाविमे महाभाग! संति दुःखस्य हेतवः। रोग। यात्रापायः उपायोऽपि, विद्युते जगतीतले॥ इस जगत् में जहां अपाय है, वहां उपाय भी है।
(युग्मम्) ४९.स्वबोधो जागरूकत्वं, ऐकाग्रयं प्राणसंग्रहः। स्वबोध, जागरूकता, एकाग्रता, प्राण-संग्रह, अनाग्रह,
अनाग्रहः सत्यनिष्ठा, सुखोपायाः इमे स्मृताः॥ सत्यनिष्ठा-ये सुख के हेतु हैं। ५०.अभ्यासेन क्षमादीनां, मनसः शोधनेन च। सुख का एक प्रकार है आरोग्य। क्षमा आदि का अभ्यास शरीरस्य श्रमेणाऽपि, स्यादारोग्यमपेक्षितम्॥ मन का शोधन और शरीर का श्रम-ये अपेक्षित आरोग्य को
बढ़ाने के उपाय हैं।
१. संस्कार-संचित अथवा अर्जित वृत्ति।