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संबोधि
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अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय
३९. अशभेन रतिं याति. विपाकं परिचिन्तयन।
वैविध्यं जगतो दृष्ट्वा, नासक्तिं भजते पुमान्॥
कर्म-विपाक का एकाग्र चिंतन करने वाला मनुष्य अशुभ कार्य में रति-आनंद का अनुभव नहीं करता। यह विपाक-विचय का फल है। जगत् की विचित्रता को देखकर मनुष्य संसार में आसक्त नहीं बनता, यह संस्थान-विचय का फल है।
४०.विशुद्धं जायते चित्तं, लेश्ययापि विशुद्ध्यते। धर्म्यध्यान के द्वारा प्राणियों का चित्त शुद्ध होता है, लेश्या अतीन्द्रियं भवेत् सौख्यं, धर्म्यध्यानेन देहिनाम्॥ विशुद्ध होती है और अतीन्द्रिय-आत्मिक सुख की उपलब्धि
होती है।
११.विजहाति शरीरं यो, धर्म्यचिन्तनपूर्वकम्।
अनासक्तः स प्राप्नोति, स्वर्ग गतिमनुत्तराम्॥
जो धर्म्य-चिंतनपूर्वक शरीर को छोड़ता है, वह अनासक्त व्यक्ति स्वर्ग और क्रमशः अनुत्तरगति-मोक्ष को प्राप्त होता है।
॥ व्याख्या ॥
ध्याता के लिए प्रारंभिक अवस्था में धर्म्य-ध्यान ही उपयुक्त है। धर्म चित्त-शुद्धि का केन्द्र है। राग-द्वेष व मोह आदि चित्त-अशुद्धि के मूल हैं। इनसे आत्मा बंधती है। मुक्ति के लिए वीतरागता अपेक्षित है। वीतराग व्यक्ति इन्द्रियसुखों में आसक्त नहीं होता। उसके सामने आत्म-सुख है, वह इन्द्रियों से गाह्य नहीं होता। वीतरागता आत्म-धर्म है। अतः उससे होने वाला सुख भी आत्म-सुख या अतीन्द्रिय आनंद है। धर्म्य-ध्यान से केवल चेतन का ही शोधन नहीं होता, अवचेजन मन के संस्कार भी मिटाये जाते हैं। अवचेतन मन की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। चेतन की अशुद्धि का मल यह अवचेतन मन ही है। ध्यान हमारे मन की गहरी तहों में घुसकर समस्त मलों का प्रक्षालन कर देता है। समतास्रोत सबके प्रति समान प्रवाहित हो जाता है। संसार में न कोई शत्रु रहता है और न कोई मित्र। अहिंसा का द्वार हमेशा के लिए खुल जाता है। इस दशा में शरीर छोड़ने वाले साधक के लिए स्वर्ग और अपवर्ग के सिवाय कोई मार्ग नहीं होता।
१. आज्ञाविचय-आगम के अनुसार सूक्ष्म पदार्थों का चिंतन करना। । २. अपायविचय-हेय क्या है, इसका चिंतन करना। . . ३. विपाकविचय-हेय के परिणामों का चिंतन करना।
४. संस्थानविचय-लोक या पदार्थों की आकृतियों, स्वरूपों का चिंतन करना। .' आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान-ये ध्येय हैं। जैसे स्थूल या सूक्ष्म आलंबन पर चित्त एकाग्र किया जाता है, वैसे ही इन ध्येय-विषयों पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। इनके चिंतन से चित्त-निरोध होता है, चित्त की शद्धि होती है, इसलिए इनका चिंतन धर्म्य-ध्यान कहलाता है। - आज्ञाविचय से वीतराग-भाव की प्राप्ति होती है। अपायविचय से राग, द्वेष, मोह और उनसे उत्पन्न होने वाले दुःखों से मुक्ति मिलती है। विपाक-विचय से दुःख कैसे होता है? क्यों होता है? किस प्रवृत्ति का क्या परिणाम होता हैइनकी जानकारी प्राप्त होती है। संस्थान-विचय से मन अनासक्त बनता है, विश्व की उत्पाद, व्यय और ध्रुवता जान ली जाती है, उसके विविध परिणाम परिवर्तन जान लिये जाते हैं, तब मनुष्य स्नेह, घृणा, हास्य, शोक आदि विकारों से विरत हो जाता है।
१२.अप्युत्तमसंहननवतां पूर्वविदां भवेत्। . शुक्लस्यद्वयमाघन्तु, स्याच्च केवलिनोऽन्तिमम्॥
शक्लध्यान के प्रथम दो भेद (पृथक्त्व-वितर्क-सविचार तथा एकत्व-वितर्क-अविचार) उत्तम संहनन वाले तथा पूर्वधरों में पाये जाते हैं। शेष दो भेद केवलज्ञानी में पाए जाते हैं।