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________________ आत्मा का दर्शन २९६ खण्ड-३ ३३.एकाग्रचिन्तनं योगनिरोधो ध्यानमुच्यते। एकाग्र चिंतन एवं मन, वचन और काया के निरोध को ध्यान धयं चतुर्विधं तत्र शुक्लं चापि चतुर्विधम्॥ कहते हैं। धर्म्यध्यान के चार प्रकार हैं और शुक्लध्यान के भी चार प्रकार हैं। ३४.अर्हता देशितां दृष्टिं, आलम्ब्य क्रियते यदा। पदार्थचिन्तनं यत्तत्, आज्ञाविचंय उच्यते॥ अर्हत के द्वारा उपदिष्ट दृष्टि-अतीन्द्रिय विषयों को आलंबन बना कर जो पदार्थ का एकाग्र चिंतन किया जाता है, वह आज्ञा विचय है। यह धर्म्यध्यान का पहला प्रकार है। ३५.सर्वेषामपि दुःखानां, रागद्वेषौ निबंधनम्। ईदृशं चिन्तनं यत्तत्, अपायविचयो भवेत्॥ राग और द्वेष सब दुःखों के कारण हैं-इस प्रकार का जो एकाग्र चिंतन किया जाता है, वह अपायविचय है। यह धर्म्यध्यान का दूसरा प्रकार है। ३६.सुखान्यपि च दुःखानि, विपाकः कृतकर्मणाम्। किं फलं कस्य चिन्तेति, विपाकविचयो भवेत्॥ सुख और दुःख कर्मों के विपाक-फल हैं। किस कर्म का क्या फल है, इस प्रकार का जो एकाग्र चिंतन किया जाता है, वह विपाक-विचय है। यह धर्म्यध्यान का तीसरा प्रकार है। . ३७.लोकाकृतेश्च तवर्तिभावनां आकृतेस्तथा। लोक की आकृति और उसमें विद्यमान प्रत्येक पदार्थ की चिन्तनं क्रियते यत्तत, संस्थानविचयो भवेत्॥ आकृति के विषय में जो एकाग्र चिंतन किया जाता है, वह संस्थान-विचय है। यह धर्म्यध्यान का चौथा प्रकार है। ॥ व्याख्या ॥ ध्यान का अर्थ है-चिंतनीय विषय में मन को एकाग्र करना, एक विषय पर मन को स्थिर करना, अथवा मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का निरोध करना (देखें-आठवें श्लोक की व्याख्या)। ध्याता ध्यान के द्वारा अपने ध्येय को प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसमें सफल भी होता है। ध्येय की इष्टता व अनिष्टता के आधार पर ध्यान भी इष्ट व अनिष्ट बन जाता है। सामान्यतः ध्येय अपरिमित है। जितने मनुष्य हैं, उन सबकी एकाग्रता भिन्न-भिन्न होती है।उनका प्रतिपादन करना असंभव है। संक्षेप में उसके चार प्रकार किये गये हैं। अनात्माभिमुखी जितनी एकाग्रता है वह सब आर्त्त व रौद्र ध्यान है। आत्माभिमुखी जितनी एकाग्रता है, वह सब धर्म व शुक्ल ध्यान है। आर्त्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं, अतः हेय हैं। धर्म और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं, अतः उपादेय हैं। ३८. उन्मादो न भवेद् बुद्धेः, अर्हद्वचनचिन्तनात्। अपायचिन्तनं कृत्वा, जनो दोषाद् विमुच्यते॥ अर्हत् की वाणी के एकाग्र चिंतन से बुद्धि का उन्माद अथवा अहंकार नहीं होता, यह आज्ञा-विचय का फल है। राग और द्वेष के परिणाम का एकाग्र चिंतन करने से मनुष्य दोष से मुक्त बनता है, यह अपाय-विचय का फल है। ॥ व्याख्या ॥ अयथार्थता में दोषों का परिपालन और उद्भव होता है। जब मनुष्य सत्य को निकट से देख लेता है तब सहसा असत्य के पैर लड़खड़ा जाते हैं। आत्म-हितैषी व्यक्ति फिर अहित का अनुसरण नहीं करता। आज्ञाविचय आदि ध्यानों में . रमण करने वाला यथार्थ का स्पर्श कर लेता है। उसकी मति-मूढ़ता सहज ही नष्ट हो जाती है। वह क्रमशः मुक्ति की ओर अग्रसर होता रहता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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