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अ. १२ ज्ञेय हेय उपादेय
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संबोधि
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स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं-१. वाचना (पढ़ना) २. पृच्छना ३ परिवर्तना याद किए हुए पाठ को दोहराना) 8. अनुप्रेक्षा ( चिंतन) ५. धर्मकथा ।
शिष्य ने पूछा- भंते! स्वाध्याय का फल क्या है ?
गुरु ने कहा- स्वाध्याय से ज्ञानावरण कर्म क्षीण होता है। उससे अनेक लाभ सम्पन्न होते हैं।
स्वाध्याय का पहला लाभ है
हम कुछ समय तक बाह्य दुनिया से अलग-थलग हो जाते हैं। मन को कुछ क्षणों के लिए उसमें उलझा देते हैं ताकि वह अपनी पुरानी स्मृतियों का ताना-बाना न बुने। यह अस्थायी चिकित्सा है, स्थायी नहीं इसमें व्यक्ति पूर्णतया स्मृतियों, कल्पनाओं तथा संवेदनाओं से मुक्त नहीं होता ।
स्वाध्याय का दूसरा लाभ है
वाचना, पृच्छना, परिवर्तना आदि से व्यक्ति बाह्य जानकारियां अधिक संगृहीत कर लेता है। उसके जानकारी का कोश बहुत अधिक बढ़ जाता है जो ज्ञान नहीं होने वाला था वह हो जाता है। लेकिन इसका खतरा यह होता है कि व्यक्ति स्वयं में रिक्त होते हुए भी अपने को भरा हुआ समझने लगता है।
स्वाध्याय का तीसरा लाभ है
सत्य की दिशा में अनुगमन करना 'अनुप्रेक्षा' उसका माध्यम है। शब्द और अर्थ की अनुप्रेक्षा करता हुआ व्यक्ति अंतिम गहराई में प्रवेश कर पदार्थ का सत्यबोध कर स्वयं में प्रविष्ट हो जाता है।
उस स्वाध्याय के मौलिक स्वरूप का दर्शन करें, जो कि हमारे जीवन को आमूल-चूल बदलने में सक्षम है। वही यथार्थ तप है। स्वाध्याय का अर्थ है 'स्व-आत्मा का अध्ययन करना, आत्मा को पढ़ना। दूसरों को पढ़ना सरल है, स्वयं को पढ़ना नहीं। इसलिए इसे तप कहा है। दूसरे के अध्ययन में व्यक्ति जितना व्यग्र है उतना स्वयं के अध्ययन में उत्सुक नहीं है। दृष्टि का दूसरों पर अवलंबित होना धर्म नहीं, धर्म है स्वयं को देखना। स्वदर्शन जो सहज है, वह आज के मानव के लिए असहज हो गया। इसलिए आज स्वाध्याय तप की जितनी उपेक्षा है, पहले उतनी नहीं रही। बड़े-बड़े तपस्वियों के लिए यह तप दुर्धर्ष है। धर्म का जीवंत रूप इसके बिना संभव नहीं है।
सही स्वाध्याय
स्वाध्याय का पहला चरण होगा कि हम अपने आमने-सामने खड़े होकर अपने को पढ़ें। दूसरों की धारणाओं को हटा दें। दूसरे लोग आपके संबंध में क्या कहते हैं- इस ओर पीठ करे दें। लोगों की अपनी-अपनी दृष्टि होती है, और अपने-अपने बटखरे होते हैं, और अपने-अपने माप होते हैं। आप उनकी चिंता करेंगे तो अपने असली चेहरे को कभी प्रगट नहीं कर सकेंगे। आपको अपना चेहरा उनके सांचे में ढालना होगा। इससे आपकी आत्मा मर जाएगी और आप संभवतया सर्वत्र सफल भी नहीं हो सकेंगे। इसलिए आप दूसरों से हटकर अपने में आएं और देखें - बड़ी ईमानदारी से कि आप कैसे है? आपके भीतर क्या है? जो है उससे डरें नहीं देखते जाएं।
दूसरे चरण में - आप अकेले बैठें और सहजतापूर्वक अपनी वृत्तियों का दर्शन करते जाएं। एक-एक को प्रकट होने दें। जो हैं उन्हें अस्वीकार कैसे करेंगे? कैसे उनसे अपरिचित रहेंगे? यहां बहुत सावधानता, निर्भयता और धैर्य की अपेक्षा होगी। काम, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, वासना आदि प्रवृत्तियां आप में पहले भी विद्यमान थीं, किंतु उनका दर्शन नहीं था, अब आप उनको देख रहे हैं और उनको प्रकाश में ला रहे हैं। इसके साथ-साथ आज तक का जो आपका विकृत रूप था उसे आप स्वीकार भी करते जाइए, लेकिन एक बात का और ध्यान रखें कि आप ऐसे नहीं हैं। आपके भीतर एक विराट् शुद्धरूप और छिपा है। ये सब आपकी प्रमत्तता के कारण प्रविष्ट हो गए थे। आप ये नहीं हैं। जैसे-जैसे आप अपने को जानने लगेंगे तो आपमें बदलाहट होनी शुरू हो जाएगी। अपने को जानना और स्वीकार करना इस वृत्ति से छूटने का अमोघ उपाय है। महावीर की भाषा में यह सम्यग् ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान की स्थिति में अन्यथा होना अशक्य है। ज्ञान शक्ति है। स्वाध्याय की साधना का यही मुख्य लक्ष्य है।