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________________ आत्मा का दर्शन २९४ ३०. अभ्युत्थानं नमस्कारो, भक्तिः शुश्रूषणं गुरोः । ज्ञानादीनां विनयनं विनयः परिकथ्यते ॥ ३१. आचार्य शैक्षरुग्णानां, संघस्य च गणस्य च । आसेवनं यथास्थाम, वैवावृत्त्यमुदाहृतम् ॥ ३२. वाचना पृच्छना चैव तथैव परिवर्तना । अनुप्रेक्षा धर्मकथा, स्वाध्यायः पञ्चधा भवेत् ॥ खण्ड - ३ गुरु आदि बड़ों के आने पर खड़ा होना, नमस्कार करना, भक्ति-शुश्रूषा करना और ज्ञान आदि का बहुमान करना विनय है। आचार्य, शैक्ष- नव दीक्षित, रुग्ण, गण और संघ की यथाशक्ति सेवा करना वैयावृत्त्य है। स्वाध्याय पांच प्रकार का होता है- १. वाचना- पढ़ना । २. पृच्छना प्रश्न पूछना। ३. परिवर्तना कंठस्थ किए हुए शांत की पुनरावृत्ति करना। ४. अनुप्रेक्षा-अर्थ-चिंतन करना । ५. धर्मकथा प्रवचन करना । ॥ व्याख्या ॥ ·3 स्वाध्याय और ध्यान परमात्म प्रकाशन के अनन्यतम अंग हैं। ध्यान जैसे योग का एक अंग है वैसे स्वाध्याय भी । स्वाध्याय ध्यान का प्रवेश द्वार है। साधक स्वाध्याय से स्वयं की यथार्थता स्वीकार कर लेता है, तब ध्यान में प्रवेश के योग्य हो जाता है। जब तक स्वयं के रूप की स्वीकृति नहीं होती और न यथार्थ बोध होता है तब उसका परमात्मा की दिशा में दौड़ना सार्थक नहीं होता। इसलिए स्वाध्याय को सबने स्वीकृत किया है। कहा है 'स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत् । परमात्मा प्रकाशते ॥ ' स्वाध्याय - ध्यानयोगेन, -योगी स्वाध्याय से विरत हो जाने पर ध्यान करे और ध्यान से विरत हो जाने पर स्वाध्याय का अवलम्बन ले। स्वाध्याय और ध्यान की संपदा से परमात्मा प्रकाशित होता है। स्वाध्याय के जिस भाव से आज हम परिचित हैं, संभवतः आगमकालीन परंपरा से पूर्व वैसा भाव नहीं था। आगमों की रचना और उनके स्थिरीकरण के समय स्वाध्याय का नया अर्थ प्रचलित हो गया। किन्तु इसके साथ-साथ मूल हार्द हाथ से छूट गया। अब स्वाध्याय की शास्त्र-ग्रंथ पठन-पाठन की परंपरा तो रही है किन्तु जहां जीवन परिवर्तन का प्रश्न था, उसमें अंतर नहीं आया। व्यक्ति शास्त्र स्वाध्याय कर स्वयं में एक तृप्ति अनुभव करने लगा कि मैंने दैनंदिन कार्य का निर्वाह कर लिया। लेकिन स्वाध्याय तप की भावना पूर्ण नहीं हुई। उससे कोई ताप नहीं पहुंचा स्वाध्याय तप है, ताप है, तो निःसंदेह ताप से कर्मों को पिघलना चाहिए। कालान्तर में स्वाध्याय का रूप और भी शिथिल होता चला गया। आगम-मौलिक ग्रंथों का वाचन छूटकर इधर-उधर की चीजें कंठस्थ कर उनके स्मरण को भी स्वाध्याय के अंतर्गत स्थान दे दिया। शास्त्रों का अध्ययन अध्यापन सार्थक नहीं है। ऐसा प्रतिपाद्य नहीं है। उनकी उपयोगिता है और वह सिर्फ इतना ही है कि आप उनसे प्रेरणा प्राप्त कर स्वयं अनुभव की दिशा में पद - विन्यास करें। सिर्फ जाने-माने नहीं किन्तु निदिध्यासन करें। इस सदी के पश्चिम के महान् साधक 'जार्ज गुरजिएफ' ने एक जगह जान-बूझकर कहा है- 'सबके भीतर आत्मा नहीं है जो आत्मा को पैदा कर ले, उसी के भीतर आत्मा है। जिन लोगों ने समझाया, सबके भीतर आत्मा है, उन लोगों ने जगत् की बड़ी हानि की है।' मनुष्य ने मान लिया कि 'मैं आत्मा हूं' अब उसे प्रगट करने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। जब तक प्रत्यक्ष नहीं जानो तब तक सिर्फ इतना ही कहो कि मानता हूं, जानता नहीं हूं। जिससे स्वयं के अज्ञान की भी स्मृति बराबर बनी रहे, और संभवतः जानने के लिए चरण उद्यत हो जाएं।' आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है- 'शास्त्र ज्ञान नहीं है, क्योंकि वे कुछ जानते नहीं हैं। इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य हैं।' शास्त्र सिर्फ संकेत हैं, उन सत्यद्रष्टा ऋषियों के दर्शन का। वह हमारा दर्शन नहीं है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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