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________________ आत्मा का दर्शन ४६२ खण्ड-४ जइ तं काहिसि भावं जा-जा दच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो अदिठअप्पा भविस्ससि॥ गोवालो भंडवालो वा जहा तहव्वऽणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि॥ यदि तुम जिस किसी स्त्री को देख उसके प्रति रागभाव करोगे तो वायु से आहत हट-शैवाल की तरह अस्थितात्मा हो जाओगे। गोपाल और भांडपाल जैसे गायों और किराने के स्वामी नहीं होते, इसी प्रकार तुम भी श्रामण्य के स्वामी नहीं रहोगे। साध्वी राजीमती के इन सुभाषित वचनों को सुन रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गए जैसे अंकुश से हाथी। तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइओ॥ गृहस्थधर्म श्रमणोपासक आनंद ४८.तए णं से आणदे गाहावई समणस्स भगवओ आनंद गृहपति। एक दिन उसने श्रमण भगवान महावीरस्स अंतिए धम्मं । सोच्चा निसम्म महावीर से धर्म सुना। हृदयंगम कर वह हृष्ट हुआ, तुष्ट हठ्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हुआ। मानसिक प्रसन्नता से भरा हुआ वह उठा। श्रमण हरिसवस-विसप्पमाणहियए उठाए उठेइ, भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दनउठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो नमस्कार किया और बोलाआयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीसदहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। भंते! मैं निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। भंते! मैं निग्रंथ प्रवचन पर प्रतीति करता हूं। रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। भंते! निग्रंथ प्रवचन में मेरी रुचि हुई है। अब्भुढेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। भंते! मैं इस निग्रंथ प्रवचन को स्वीकार करने के लिए उपस्थित हूं। एवमेयं भंते! भंते! आपने जो कहा है, वह ऐसी ही है। तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! भंते! वह तथ्यपूर्ण, यथार्थ और असंदिग्ध है। इच्छियमयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! भंते! वह इष्ट और स्वीकार्य है। इच्छियपडिच्छियमेयं भंते!..... जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर- भंते! आपके पास बहुत से राजा, अमात्य, तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेदिठ-सेणावइ- नगररक्षक, सीमावर्ती राजा, मांडलिक राजा, कृषि सत्थवाहप्पभिझ्या मुंडा भवित्ता अगाराओ व्यवसायी, व्यापारी, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि ने अणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंड हो गृहवास छोड़ मुनिधर्म को स्वीकार किया है। मुझ मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अहं में वह सामर्थ्य नहीं कि मैं मुंड हो गृहवास छोड़ मुनिधर्म णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खा- स्वीकार करूं। वइयं-दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जिस्सामि। भंते! मैं आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत इस बारह व्रतवाले श्रावक धर्म को अंगीकार करना चाहता हूं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि। देवानुप्रिय! जैसा चाहो, विलंब न करो। .
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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