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प्रायोगिक दर्शन
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अ. ४ : सम्यक्चारित्र साध्वी राजीमती और मुनि रथनेमि १७.गिरिं रेवययं जंती वासेणुल्ला उ अंतरा। साध्वी राजीमती भगवान अरिष्टनेमि को वन्दन करने वासंते अंधयारम्मि अंतो लयणस्स सा ठिया॥ के लिए रैवतक पर्वत (गिरनार) पर जा रही थी। मार्ग में
तेज वर्षा होने लगी। सारे वस्त्र भींग गए। चारों ओर
अंधेरा छा गया। राजीमती एक गुफा में ठहरी। चीवराई विसारंती जहाजाय त्ति पासिया। राजीमती ने अपने वस्त्र सुखाने के लिए फैलाये। रहनेमी भग्गचित्तो पच्छा दिट्ठो य तीइ वि॥ राजीमती को यथाजात-निर्वस्त्र अवस्था में देख रथनेमि
विचलित हो गया। राजीमती ने भी रथनेमि को देख लिया। भीया य सा तहिं दलू एगते संजयं तयं। एकांत में मुनि रथनेमि को देख राजीमती भयभीत बाहाहिं काउं संगोफ वेवमाणी निसीयई। हुई। वह दोनों भुजाओं के गुंफन से वक्ष को ढांक कर
कांपती हुई बैठ गई। अह सो वि . रायपुत्तो समुहविजयंगओ। उस समय राजा समुद्रविजय के पुत्र मुनि रथनेमि ने . भीयं पवेवियं दटुं इमं वक्कं उदाहरे॥ राजीमती को भीत और प्रकंपित देखकर वचन कहारहनेमी अहं भहे! सुरूवे! चारुभासिणि! भद्रे! सुरूपे! चारुभाषिणि! सुतनु! मैं रथनेमि हूं। ममं भयाहि सुयणू! न ते पीला भविस्सई॥ तुम मुझे स्वीकार करो। तुम्हें कोई पीड़ा नहीं होगी। एहि ता भुंजिमो. भोए माणुस्सं खु सुदुल्लहं। आओ, हम भोग भोगें। निश्चित ही मनुष्य जीवन भुत्तभोगा तओ पच्छा जिणमग्गं चरिस्सिमो॥ बहुत दुर्लभ है। भोग भोगने के बाद हम मुनि बन जाएंगे। दळूण रहनेमिं तं 'भग्गुज्जोयपराइयं। रथनेमि को संयम में उत्साहहीन और भोगों से राईमई असंभंता अप्पाणं संवरे तहिं॥ पराजित देख राजीमती व्याकुल नहीं हुई उसने वहीं अपने
शरीर को वस्त्रों से ढंक लिया। अह सा रायवरकन्ना सुदिठया नियमव्वए। नियम और व्रत में सुस्थित राजकन्या राजीमती ने जाई कुलं च सीलं च रक्खमाणी तयं वए॥ जाति, कुल और शील की रक्षा करते हुए रथनेमि से
कहाजइ सि रूवेण वेसमणो ललिएण नलकूबरो। भले तुम रूप से वैश्रमण हो, लालित्य से नलकूबर । वि ते न इच्छामि जइ सि सक्खं पुरंदरो॥ हो. और तो क्या, साक्षात इन्द्र हो तब भी मैं तुम्हारी
इच्छा नहीं करती। पक्खदे जलियं जोइं धूमकेउं दुरासयं। अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प प्रज्वलित, विकराल, नेच्छंति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे॥ धूमशिखा वाली अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं। परन्तु जीने
के लिए वमन किये हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं
करते। धिरत्थु ते जसोकामी! जो तं जीवियकारणा। ___हे यशःकामिन् ! धिक्कार है तुम्हें, जो तुम क्षणभंगुर वंतं इच्छसि आवेडे सेयं ते मरणं भवे॥ जीवन के लिए वमी (अरिष्टनेमि द्वारा परित्यक्त) वस्तु
को पीने की इच्छा करते हो। इससे तो तुम्हारा मरण ही
श्रेयस्कर है। अहं च भोयरायस्स तं च सि अंधगवण्हिणो। मैं भोजराज की पुत्री हूं और तुम अंधकवृष्णि के पुत्र मा कुले गंधणा होमो संजमं निहुओ चर॥ हो। हम कुल में गंधन सर्प की भांति न हों। तुम स्थिरमन
से संयम का पालन करो।