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________________ आत्मा का दर्शन ४०. नया लभेज्जा निउणं सहायं एक्को वि पावाइं विवज्जयंतो ४१. संवच्छरं चावि परं पमाणं विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ हवा गुण समं वा । बीयं च वासं न तहिं वसेज्जा । सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ ॥ ४२. जो पुव्वरत्तावररत्तकाले किं मे कडं किं च मे किच्च सेसं ४४. जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं ४६० किं सक्कणिज्जं न समायरामि ॥ पिक्खई अप्पगमप्पएणं । ४३. किं मे परो पासइ किं व अप्पा किं वाहं खलियं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो अणागयं नो पडबंध कुज्जा ॥ कारण वाया अदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा आइओ खिप्पमिवक्खलीणं ॥ ४५. जस्सेरिसा जोग जिइंदियस्स तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी धिइमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । सो जीवइ संजमजीविएणं ॥ ४६. अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो अरक्खिओ जाइपहं उवेइ सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं । सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ खण्ड - ४ यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी अथवा अपने समान गुणवाला निपुण साथी न मिले तो पाप कर्मों का वर्जन करता हुआ काम-भोगों में अनासक्त रह अकेला ही (संघ स्थित) विहार करे। जिस गांव में मुनि काल के उत्कृष्ट प्रमाण तक रह चुका हो (वर्षाकाल में चतुर्मास और शेषकाल में एक मास) वहां दो वर्ष (दो चातुर्मास और दो मास) का अंतर किए बिना न रहे। भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग से चले। सूत्र का अर्थ जिस प्रकार आज्ञा दे वैसे चले। जो साधु रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में अपने आप अपना आलोचन करता है-मैंने क्या किया ? मेरे लिए क्या कार्य करना शेष है ? वह कौन-सा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूं पर प्रमादवश नहीं कर रहा हूं। क्या मेरे प्रमाद को कोई दूसरा देखता है अथवा अपनी भूल को मैं स्वयं ही देख लेता हूं ? ऐसी कौन-सी स्खलना है, जिसे मैं नहीं छोड़ रहा हूं। इस प्रकार सम्यक् रूप से आत्मनिरीक्षण करता हुआ व्यक्ति अनागत का प्रतिबंध न करे - असंयम में न बंधे। जहां कहीं भी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ देखे तो धीर व्यक्ति वहीं सम्भल जाए। जैसे जातिमान अश्व लगाम को खींचते ही संभल जाता है। जिस जितेन्द्रिय, धृतिमान सत्पुरुष के योग सदा इस प्रकार के होते हैं, उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहा जाता है। जो ऐसा होता है, वही संयमी जीवन जीता है। सब इन्द्रियों को समाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। अरक्षित आत्मा जातिपथ- संसार-चक्र में भ्रमण करता है। सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त जाता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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