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________________ प्रायोगिक दर्शन विविक्तचर्या ३४. अणुसोयपट्ठिए बहुजणम्मि पडिसोयमेव अप्पा ३५. अणुसोयसुहोलोगो अणुसओ संस ३६. तम्हा आयारपरक्कमेण य चरिया गुणा य नियमा य पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥ पडिसोयलद्धलक्खेणं । दायव्वो होउकामेणं ॥ ३७. अणिएयवासो समुयाणचरिया अप्पोवही कलहविज्जणा य ४५९ होति साहूण दट्ठव्वा ॥ अन्नायउंछं पइरिक्कया य। गामे कुले वा नगरे व देसे १८. न पडिण्णवेज्जा सयणासणाई संवरसमाहिबहुलेणं । विहारचरिया इसिणं पसत्था ॥ सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं । १९. गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा • असंकिलिट्ठेहिं समं वसेज्जा मत्तभावं न कहिं चि कुज्जा ॥ अभिवायणं वंदण पूयणं च । मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी ।। : सम्यक्चारित्र अ. ४ : अधिकांश लोग अनुस्रोत में प्रस्थान कर रहे हैं- भोग मार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, जो विषयभोगों से विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिएविषयानुरक्ति में प्रवृत्त नहीं करना चाहिए । जन-साधारण को स्रोत के अनुकूल 'चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु जो सुविहित - चारित्र सम्पन्न है उसका प्रतिस्रोत आश्रम - विश्रामस्थल है। अनुस्रोत संसार है - जन्म मरण की परंपरा है और प्रतिस्रोत उसका उतार है - जन्म-मरण का पार पाना है। इसलिए आचार में पराक्रम करने वाले, संवर में प्रभूत समाधि रखने वाले साधुओं को चर्या, गुणों तथा नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए । · अनिकेतवास (गृहवास का त्याग), समुदान चर्या ( अनेक कुलों से भिक्षा लेना), अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना, एकांतवास, उपकरणों की अल्पता और कलह का वर्जन - यह विहारचर्या (जीवन-चर्या) ऋषियों के लिए प्रशस्त है। साधु विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा न दिलाए कि वह शयन, आसन, उपाश्रय, स्वाध्याय- भूमि जब मैं लौटकर आऊं तब मुझे ही देना । इसी प्रकार भक्त पान मुझे ही देना - यह प्रतिज्ञा भी न कराए। गांव, कुल, नगर या देश में कहीं भी ममत्व भाव न करे। साधु गृहस्थ का वैयावृत्त्य न करे। अभिवादन, वन्दन और पूजन न करे। मुनि संक्लेश-रहित साधुओं के साथ रहे जिससे कि चरित्र की हानि न हो।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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