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"ठितो।
प्रायोगिक दर्शन
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अ.१: समत्व सामी जाणति-जहा सो भव्वत्ति संबुज्झिहिति। महावीर ने अपने ज्ञान से जाना यह सर्प भव्य ताहे गतो। गंता जक्खघरगमंडवियाए पडिमं । (रूपान्तरण के योग्य) है। बोधि को प्राप्त होगा। इसलिए
चरवाहों की बात को सुना-अनसुना कर महावीर उसी पगडंडी से चले। वहां पहुंचकर, एक देवालय के मंडप में
कायोत्सर्ग प्रतिमा में स्थित हो गए। सो पुण सप्पो को पुव्वभवे आसि? खमओ वह सर्प पूर्वभव में कौन था? अतीन्द्रिय ज्ञान के पारणए खुड्डएण समं वासियस्स गतो। तेण द्वारा उन्होंने जान लिया-पूर्वभव में यह एक तपस्वी था। मंडुक्कलिया विराहिता। सो खुड्डएण एक बार नवदीक्षित मुनि को साथ ले वह वर्षाकाल में पडिचोदितो। ताहे सो अण्णं मतेल्लितं दावेति। भिक्षा के लिए गया। मार्ग में एक मेंढ़की उसके पांव से भणति, इमावि मए मारिता? जातो लोएण कुचली गई। शिष्य ने तपस्वी को इस विषय में निवेदन मारियाओ ताओ दावेति।
किया। तपस्वी ने शिष्य के कथन की उपेक्षा की। थोड़ा आगे चलने पर एक मरी हुई मेंढ़की का ओर संकेत करते हुए तपस्वी ने कहा-क्या यह भी मेरे द्वारा मारी गई? इस प्रकार रास्ते में जितनी भी मरी हुई मेंढ़कियां आईं, उन सबकी ओर इंगित करता हआ तपस्वी यही कहता रहा-क्या यह भी मेरे द्वारा मारी गई है? क्या
यह भी मेरे द्वारा मारी गई है? ताहे खुड्डएण णातं वियाले आलोएहिति। सो शिष्य ने सोचा, संभव है संध्या के समय तपस्वी वियाले आवस्सग-आलोयणाए आलोइत्ता आलोचना कर लेगा। वह समय भी बीत गया। शिष्य ने णिविट्ठो। खुड्डओ चिंतेति-णूणं से विस्सरितं। सोचा, तपस्वी मेंढ़की की आलोचना करना भूल गया है। तेण सारितो। रुट्ठो खुड्डगस्स आहणामित्ति पुनः स्मृति करवाई। तपस्वी क्रुद्ध हो गया। शिष्य को उद्घातितो। तत्थ खंभे आवडितो, मतो, मारने दौड़ा। वह एक खंभे से टकराकर गिर गया। विराहितसामन्नो कालगतो। जोइसिएहिं उववन्नो। श्रामण्य की विराधना की, मरकर ज्योतिष्क देव बना। • ततो चुतो कणगखले पंचण्हं तावससयाणं ज्योतिष्क का आयुष्य पूर्णकर वह कनकखल आश्रम कुलवइस्स तावसी पोठे आयातो। दारओ जा- में कुलपति के घर जन्मा। वह पांच सौ तापसों का तो। तत्थ से कोसिओत्ति नामं कत। सो य तेण अधिपति था। जातक का नाम कौशिक रखा गया। वह सभावेण अतीव चंडकोवो। तत्थ य अन्नेऽवि अत्थि स्वभाव से अत्यंत क्रोधी था। वहां कौशिक नाम के दूसरे कोसिया। ताहे से चंडकोसिओत्ति णामं कतं। तापस पुत्र भी थे। इसलिए स्वभावानुरूप उसका नाम
चंडकौशिक कर दिया गया। सो य कुलवती जातो। सो तत्थ वणसंडे मुच्छितो एक दिन वह आश्रम का कुलपति बन गया। उस तेसिं तावसाणं ताणि फलाणि ण देति। ते अलभंता वनखंड में वह बहुत अधिक आसक्त था। तापसों को उस दिसोदिसिं गता। जो व तत्थ गोवालगादि एति वनखंड के फल नहीं लेने देता। फल-फूल आदि न पाकर तंपि हतूणं धाडेति।
तापस इधर-उधर बिखर गए। उधर जो कोई चरवाहे
आदि आते उन्हें भी वह मार भगाता। तस्स य अदूरे सेयविया णाम णगरी। ताओ उस वनखंड के समीप श्वेतविका नाम की नगरी थी। रायपुरोहिं आगतेहिं विहरितपडिणिवेसेण भग्गो वहां के राजकुमार क्रीड़ा करने के लिए उस आश्रम में विणासिओ य। तस्स गोवालेहिं कहितं। सो आए। ईर्ष्या के वशीभूत हो उसे विनष्ट करने लगे।