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________________ आत्मा का दर्शन ३९६ खण्ड-४ ४. गोवग्गफलं च ते चउब्विहो समणसंघो भविस्सति। ५. पउमसरो चउब्विहदेवसंघातो भविस्सति। ६.जंच सागरं तिन्नो तं संसारमुत्तरिहिसि। ७. जो य सूरो तमचिरा केवलनाणं ते उप्पज्जिहिति। ८. जं च अंतेहिं माणुसुत्तरो वेढितो तं ते निम्मल जसकित्तिपयावा सयले तिहुयणे भविस्सति। देखा, उसके फलस्वरूप आप द्वादशांगी की प्ररूपणा करेंगे। ४. आपने गो वर्ग देखा, उसके फलस्वरूप आपके चतुर्वर्णात्मक श्रमण संघ होगा। ५. आपने पद्म सरोवर देखा, है, उसके फलस्वरूप आपकी परिषद् में चतुर्विध देवों का समवाय होगा अथवा आप चतुर्विध देवों की प्ररूपणा करेंगे। ६. आपने भुजाओं से महासागर को तीर्ण हुआ देखा है, उसके फलस्वरूप आप संसार समुद्र का पार पाएंगे। ७. आपने सूर्य को देखा है, उसके फलस्वरूप आपको शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न होगा। ८. आपने अपनी आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्टित देखा है, उसके फलस्वरूप सम्पूर्ण त्रिभुवन में आपका निर्मल यश, कीर्ति और प्रताप फैलेगा। . ९. आपने अपने को मन्दराचल पर आरूढ़ देखा है, उसके फलस्वरूप आप सिंहासनस्थ होकर देव, मनुष्य और असुर परिषद के बीच धर्म का आख्यान करेंगे। आपने स्वप्न में जो दो मालाएं देखी हैं, उनका फल मैं नहीं जानता। महावीर ने कहा-उत्पल! जिसे तुम नहीं जानते हो वह यह है-मैं दो प्रकार के धर्म-अगार धर्म और अनगार धर्म का प्ररूपण करूंगा। उत्पल ने महावीर को वंदना की और चला गया। ९. जं च मंदरमारूढोसि तं सीहासणत्यो सदेवमणुयासुराए परिसाए धम्म पन्नवेहिसित्ति। दामदुगं पुण ण जाणामि। सामी भणति-हे उप्पला! जणं तुम न याणसि तं णं अहं दुविहमगाराणगारियं धम्मं पन्नवेहामित्ति। ततो उप्पलो वंदित्ता गतो। भगवान महावीर और चंडकौशिक २१.ताहे सामी उत्तरवाचालं वच्चति। तत्थ अंतरा कणकखलं णाम आसमपदं। दो पंथा-उज्जुओ य वंको य। जो सो उज्जुओ सो कणगखलमज्झेण वच्चति । वंको परिहरंतो सामी उज्जुएण पधाइतो। महावीर उत्तर वाचला की ओर जा रहे थे। मार्ग के मध्य कनकखल नाम का आश्रम था। आश्रम से दो मार्ग निकलते थे। एक सीधी पगडंडी और एक टेढा मार्ग। सीधी पगडंडी कनकखल के मध्य से होकर जाती थी। महावीर टेढे मार्ग को छोड़ सीधी पगडंडी से चले। चरवाहों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका-स्वामी! इस मार्ग में दृष्टिविष सर्प रहता है इसलिए आप इधर न तत्थ सामी गोवालएहिं वारितो। जथा एत्थ दिदिठविसो सप्पो। मा एतेण वच्चह। जाएं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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