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________________ आत्मा का दर्शन २६ खण्ड-१ भंते! उस समय भरतक्षेत्र में सर्प और अजगर होते २६.अस्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे अहीइ वा अयगराइ वा? हंता अस्थि, णो चेव णं ते अण्णमण्णस्स तेसिं वा मणुयाणं आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेयं वा उप्पाएंति। पगइभदया णं ते वालगगणा पण्णत्ता समणाउसो! होते हैं। पर वे मनुष्यों को न बाधा पहुंचाते हैं और न काटते हैं। वे प्रकृति से भद्र होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! २७.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे डिंबाइ वा डमराइ वा कलह-बोल-खार-वेर-महाजुहाइ वा महासंगामाइ वा महासत्थपडणाइ वा महापुरिस- पडणाइ वा महारुधिरपडणाति वा? गोयमा! णो इणढे समठे, ववगयवेराणुबंधा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में विप्लव, युद्ध, कलह, कोलाहल, कटुता, वैर, महायुद्ध, महासंग्राम, महाशस्त्र का प्रयोग, महापुरुषों-राजा, सेनापति आदि का अकाल निधन, महान रक्तपात होते हैं? नहीं। वे मनुष्य वैर-विरोध से रहित होते हैं आयुष्मन् श्रमण! २८.अत्थि णं भंते तीसे समाए भरहे वासे दुब्भूयाति वा कुलरोगाइ वा गामरोगाइ वा मंडलरोगाइ वा पोट्ट-सीसवेयणाइ वा कण्णोठ-अच्छि-णह- दंतवेयणाइ वा कासाइ वा सासाइ वा सोसाइ वा जराइ वा दाहाइ वा अरिसाइ वा अजीरगाइ वा दओदराइ वा पंडुरोगाइ वा भगंदराइ वा एगाहियाइ वा बेयाहियाइ वा तेयाहियाइ वा चउत्थाहियाइ वा धनुग्गहाइ वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारम्गहाइ वा जक्खम्गहाइ वा भूयग्गहाइ वा मत्थगसूलाइ वा हिययसूलाइ वा पोट्टकुच्छि- जोणिसूलाइ वा गाममारीइ वा जाव सण्णिवेस- मारीइ वा पाणक्खया जणक्खया कुलक्खया वसणब्भूय-मणारिया? णो इणठे समठे, ववगयरोगायंका णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में टिड्डी आदि क्षुद्र जन्तुओं के उपद्रव, कुलरोग, ग्रामरोग, मंडलरोग, उदरपीड़ा, शिरोवेदना, कान, होठ, आंख, नख और दांत की पीड़ा, खांसी, दमा, क्षयरोग, ज्वर, दाह, बवासीर, अजीर्ण, जलोदर, पीलिया, भगंदर, एकान्तर ज्वर, दो दिन के अंतराल से आनेवाला ज्वरं, तीन दिन के अंतराल से आनेवाला ज्वर, चार दिन के अंतराल से आनेवाला ज्वर, धनुर्ग्रह, इन्द्रग्रह, स्कंदग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, मस्तकशूल, हृदयशूल, उदरशूल, कुक्षिशूल, योनिशूल, ग्राममारी यावत् सन्निवेशमारी, प्राणक्षयपशुक्षय, जनक्षय, कुलक्षय-जनता को पीड़ित करने वाले ये व्याघात होते हैं? नहीं। वे मनुष्य रोग और आतंक से रहित होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! २९.ते णं भंते! मणुया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छंति? कहिं उववज्जंति? गोयमा! छम्मासावसेसाउया जुयलगं पसवंति, एगूणवण्णं राइंदियाइं सारक्खंति संगोवेंति, सारक्खित्ता संगोवेत्ता कासित्ता छीइत्ता जंभाइत्ता अक्किट्ठा अव्वहिया अपरिताविया कालमासे कालं किच्चा देवलोएस उववज्जंति, देवलोग- भंते! उस समय के मनुष्य आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त हो कहां जाते हैं. कहां उत्पन्न होते हैं? गौतम ! जब छह मास का आयुष्य शेष रहता है, तब वे मनुष्य एक युगल को जन्म देते हैं। ४९ रात्रिपर्यंत उस युगल का संरक्षण करते हैं, संगोपन करते हैं। अंत में बिना किसी कष्ट, पीड़ा एवं संताप का अनुभव किए वे खांसी, छींक अथवा जंभाई के साथ मृत्यु को प्राप्त कर
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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