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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-४
माणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं मेघकुमार के हाथ को छू जाते। कुछ पैर को छू जाते। कुछ हत्थेहिं संघटेति अप्पेगइया पाएहिं संघटेंति, अप्पे- सिर को छू जाते। कुछ पेट को छू जाते और कुछ पूरे गइया पोट्टे संघटेंति सीसे संघटेंति, अप्पेगइया शरीर को छू जाते। कुछ एक बार, कुछ अनेक बार उसे पोट्टे संघटेंति अप्पेगइया कायंसि संघटेंति लांघकर चले जाते। कुछ अपने पैरों की धूलि से उसे अप्पेगइया ओलंडेंति अप्पेगइया पोलंडेंति अप्पेगइया लिप्त कर देते। इन सभी विक्षेपों से मेघकुमार क्षण भर भी पायरय-रेणु-गंडियं करेंति। एमहालियं च रयणिं मेहे आंख नहीं मूंद सका। कुमारे नो संचाएइ खणमवि अच्छिं निमीलित्तए। तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे मेघकमार के मन में उस समय इस प्रकार का अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे मनोभाव उत्पन्न हुआ-मैं राजा श्रेणिक का पुत्र और समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं सेणियस्स रण्णो पुत्ते । धारिणी देवी का आत्मज मेघ हं। मैं उन्हें इष्ट, कांत और धारिणीए देवीए अत्तए मेहे इठे कंते पिए...। प्रिय था। तं तया णं अहं अगारमज्झावसामि तया णं मम ___ मैं जब गृहवासी था, तब ये श्रमण निग्रंथ मेरा आदर समणा निग्गंथा आढायंति परियाणंति सक्कारेंति करते थे। मेरी ओर ध्यान देते थे। मेरा सत्कार करते थे। सम्माणेति, अट्ठाई हेऊइं पासिणाइं कारणाई वा- सम्मान करते थे। अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण गरणाई आइक्खंति, इट्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं का आख्यान करते थे। इष्ट और कमनीय वाणी से आलवेंति-संलवेंति। जप्पभिई च णं अहं मुंडे आलाप-संलाप करते थे। जिस क्षण से मैं मुंड हुआ हूं, भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तप्पभिई च अगार से अनगार बना हूं, उस क्षण से ये श्रमण-निग्रंथ णं ममं समणा निग्गंथा नो आढायंति नो मेरे साथ वैसा व्यवहार नहीं कर रहे हैं। परियाणंति नो सक्कारेंति नो सम्माणेति नो अट्ठाई हेऊइं पसिणाइं कारणाई वागरणाइं आइक्खंति, नो इट्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेंतिसंलवेंति। तं सेयं खलु मज्झ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए ___अतः मेरे लिए उचित है कि मैं प्रातः सूर्योदय होते ही जाव उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे श्रमण भगवान महावीर से पूछ पुनः घर में चला जाऊं। तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता इस चिंतन के साथ अत्यंत खिन्न और दुःखी मन से मुनि पुणरवि अगारमज्झावसित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, मेघकुमार ने नरक के समान कष्टकारी रात बिताई। संपेहेत्ता अट्ट-दुहट्ट-वसट्ट-माणसगए निरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेइ।..... कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए जाव रात ढली। पौ फटी। सूर्योदय हुआ। मुनि मेघकुमार उठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा भगवान महावीर के पास आया। उसने महावीर की दाई जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दन-नमस्कार किया उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं और भगवान की उपासना करने लगा। तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइनमंसइ जाव पज्जुवासइ। तए णं मेहाइ! समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं श्रमण भगवान महावीर ने मुनि मेघकुमार को वयासी से नणं तुम मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्त- संबोधित करते हए कहा-मेघ ! मध्यरात्रि में श्रमण निग्रंथों