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________________ प्रायोगिक दर्शन ४९९ अ. ६ : धर्मसंघ ४. पट्ठवेत्ता णो णिव्विसति। ४. प्रायश्चित्त की प्रस्थापना कर उसका वहन नहीं करता। ५. जाइं इमाइं थेराणं ठितिपकप्पाइं भवंति ताई ५. जो स्थविरों के लिए निर्दिष्ट स्थितकल्प (मर्यादा अतियंचिय-अतियंचिय पडिसेवेति, से हंदहं व्यवस्था) का उच्छंखलतापूर्वक प्रतिसेवन पडिसेवामि किं मे थेरा करेस्संति? करता है। दसरों के पछने पर कहता है-लो. मैं दोष का प्रतिसेवन करता हूं, स्थविर मेरा क्या करेंगे? संघसेवा : कर्मक्षय का हेतु ३३.पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महा- पांच स्थानों से श्रमण निग्रंथ महानिर्जरा (महापज्जवसाणे भवति, तं जहा कर्म-विशुद्धि) तथा महापर्यवसान (महाकर्मक्षय) वाला होता हैअगिलाए आयरियवेयावच्चं करेमाणे, १. अग्लान भाव से आचार्य की सेवा करता है। अगिलाए उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे, २. अग्लान भाव से उपाध्याय की सेवा करता है। अगिलाए थेरवेयावच्चं करेमाणे, ३. अग्लान भाव से स्थविर की सेवा करता है। अगिलाए तवस्सिवेयावच्चं करेमाणे, ४. अग्लान भाव से तपस्वी की सेवा करता है। अगिलाए गिलाणवेयावच्चं करेमाणे। ५. अग्लान भाव से रोगी की सेवा करता है। ३४.पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा१. अगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे, पांच स्थानों से श्रमण निग्रंथ महानिर्जरा तथा महापर्यवसान करनेवाला होता है १. अग्लानभाव से शैक्ष-नवदीक्षित की सेवा करता २. अगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे, ३. अगिलाए गणवेयावच्चं करेमाणे, ...'४. अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे, १. ५. अगिलाए साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे। २. अग्लान भाव से कुल की सेवा करता है। ३. अग्लान भाव से गण की सेवा करता है। ४. अग्लान भाव से संघ की सेवा करता है। ५. अग्लान भाव से साधर्मिकों की सेवा करता है। मेघकुमार ३५.जहिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चा- वरहकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जासंथारएसु विभज्जमाणेसु मेह- कुमारस्स दारमूले सेज्जा-संथारए जाए यावि होत्था। तए णं समणा निग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोग- चिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छ- मेघकुमार जिस दिन मुंड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ, उसी दिन के अंतिम प्रहर में दीक्षा-पर्याय के क्रम से श्रमण निग्रंथों के शयन-स्थल और संस्तारकों का विभाग किया गया। मेघकुमार को सोने का स्थान दरवाजे के पास मिला। मध्यरात्रि के समय तक वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, धर्मानुयोग चिंतन तथा उच्चार-प्रस्रवण के लिए श्रमण निग्रंथ आते-जाते रहे। इस आवागमन में कुछ श्रमण
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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