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________________ आत्मा का दर्शन ४९८ खण्ड-४ भिक्खालसिए एगे एगे ओमाणभीरुए थद्धे। कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है। कोई अपमानएगं च अणुसासम्मी हेऊहिं कारणेहिं य॥ भीरू और अहंकारी है। किसी को गुरु हेतुओं व कारणों द्वारा अनुशासित करते हैं। सो वि अंतरभासिल्लो दोसमेव पकुव्वई। गुरु द्वारा अनुशासित होने पर बीच में ही बोल उठता आयरियाणं तं वयणं पडिकूलेइ अभिक्खणं॥ है। मन में द्वेष प्रकट करता है तथा आचार्य के वचन बार बार उलटना चाहता है। न सा ममं वियाणाइ न वि सा मज्झ दाहिई। गुरु प्रयोजनवश किसी श्राविका के घर से कोई वस्तु निग्गया होहिई मन्ने साहू अन्नोत्थ वच्चउ॥ लाने का निर्देश देते हैं तो वह अविनीत शिष्य कहता है-'वह मुझे नहीं जानती। वह मुझे नहीं देगी। संभव है, वह अभी घर से बाहर गई होगी। इस कार्य के लिए मैं ही क्यों? कोई दूसरा साधु चला जाए।' । पेसिया पलिउंचंति ते परियंति समंतओ। ___ किसी कार्य के लिए उन्हें भेजा जाता है तो वे कार्य किए रायवेदिठं व मन्नंता करेंति भिउडिं मुहे। बिना ही लौट आते हैं। पूछने पर कहते हैं-उस कार्य के लिए आपने हमसे कब कहा था? वे चारों ओर घूमते हैं, किन्तु गुरु के पास कभी नहीं बैठते। कभी गुरु का कहा कोई काम करते हैं तो उसे राजा की बेगार की भांति मानते हुए मुंह पर भृकुटि तान लेते हैं-मुंह को मचोट लेते हैं। वाइया संगहिया चेव भत्तपाणे य पोसिया। ___ आचार्य सोचते हैं-मैंने इन्हें पढ़ाया। संगृहीत-दीक्षित जायपक्खा जहा हंसा पक्कमति दिसोदिसिं॥ किया। भोजन-पानी से इनका पोषण किया। किन्तु कुछ योग्य बनने पर ये मुझसे वैसे ही दूर हो रहे हैं, जैसे पंख आने पर हंस (पक्षीपोत) विभिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं। अह सारही विचिंतेइ खलुंकेहिं समागओ। ___ कुशिष्यों द्वारा खिन्न होकर आचार्य सोचते हैं-इन किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई। दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या? इनके संसर्ग से मेरी आत्मा व्याकुल होती है। जारिसा मम सीसा उ तारिसा गलिगदहा। जैसे मेरे शिष्य हैं, वैसे ही गली-गर्दभ होते हैं। इन गलिगबहे चइत्ताणं दढं परिगिण्हई तवं॥ गली-गर्दभों को छोड़कर गर्गाचार्य ने दृढ़ता के साथ तपः मार्ग को अंगीकार किया। गण निष्कासन के हेतु ३२.पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे साहम्मियं संभोइयं पांच स्थानों से श्रमण-निग्रंथ अपने साधर्मिक विसंभोइयं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा- सांभोजिक को विसांभोजिक-मंडलीबाह्य करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता१. सकिरियट्ठाणं पडिसेवित्ता भवति। १. जो क्रियास्थान-हिंसा आदि विशेष दोष का प्रतिसेवन करता है। २. पडिसेवित्ता णो आलोएइ। २. प्रतिसेवन कर आलोचना नहीं करता। ३. आलोइत्ता णो पट्ठवेति। ३. आलोचना कर प्रायश्चित का प्रस्थापन/पालन करने में प्रवृत्त नहीं होता।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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