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________________ प्रायोगिक दर्शन ३०. आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच वुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा १. आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वाणो सम्मं परंजित्ता भवति । २. आयरियउवज्झाए णं गणंसि आधारातिणियाए कितिकम्मं णो सम्मं पउंजित्ता भवति । ३. आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले णो सम्ममणुप्पवाइत्ता भवति । ४. आयरियउवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्ममब्भुट्ठित्ता भवति । ५. आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणापुच्छियचारी यावि हवइ, णो आपुच्छिंयचारी । आचार्य गर्ग और अविनीत शिष्य ३१. धेरे गणहरे गग्गे, मुणी आसि विसारए । आइण्णे गणिभावम्मि समाहिं पडिसंधए ॥ वहणे वहमाणस्स कंतारं जोए वहमाणस्स संसारो ४९७ अश्वत्तई । अश्वत्तई ॥ खलुंके जो उ जोएइ विहम्माणो किलिस्साई । असमाहिं च वेएइ तोत्तओ य से भज्जई ॥ खलुंका जारिसा जोज्जा जोया धम्मजाणम्मि दुस्सीसा वि हु तारिसा । भज्जंति धिइदुब्बला ॥ इड्ढीगारविए एगे एगेत्थ रसगारवे । सायागारविए एगे एगे सुचिरकोहणे ॥ विग्रह के अ. ६ : धर्मसंघ आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में विग्रह के पांच हेतु हैं १. आचार्य तथा उपाध्याय गण में आज्ञा व धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें। २. आचार्य तथा उपाध्याय गण में यथारात्निक - दीक्षा पर्यायानुसार बड़े-छोटे के क्रम से कृतिकर्म-वंदन आदि का प्रयोग न करें। ३. आचार्य तथा उपाध्याय जिन-जिन सूत्र पर्यवजात - सूत्र और अर्थ के प्रकारों को धारण करते हैं, उनकी उचित समय पर गण को सम्यक् वाचना न दें। ४. आचार्य तथा उपाध्याय गण में रोगी तथा नवदीक्षित साधुओं का वैयावृत्त्य करने के लिए जागरूक न रहें। ५. आचार्य तथा उपाध्याय गण को पूछे बिना ही सुदूर क्षेत्रों में चले जाएं, पूछकर न जाएं। एक गर्ग नामक स्थविर मुनि हुआ। वह गणधर और शास्त्र - विशारद था। वह गुणों से आकीर्ण था। गणी पद पर स्थित होकर समाधि की खोज करता था। उसके शिष्य अविनीत थे। उनकी अविनीत दशा को देखकर गर्गाचार्य ने कहा जैसे वाहन को वहन करते हुए बैल के अरण्य स्वयं उल्लंघित हो जाता है, वैसे ही योग को वहन करते हुए मुनि के संसार स्वयं उल्लंघित हो जाता है। जो अयोग्य बैलों को जोतता है, वह उनको चलाता हुआ क्लेश पाता है। उसे असमाधि का संवेदन होता है। उसका चाबुक टूट जाता है। जैसे जुते हुए अयोग्य बैल वाहन को भग्न कर देते हैं, वैसे ही दुर्बल धृतिवाले शिष्यों को धर्म यान में जोत दिया जाता है तो वे उसे भग्न कर डालते हैं। कोई शिष्य ऋद्धि का गौरव / गर्व करता है। कोई रस का गौरव करता है। कोई साता का गौरव करता है। कोई चिरकाल तक क्रोध रखने वाला होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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