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प्रायोगिक दर्शन
अ. ६ : धर्मसंघ काल-समयंसि समणेहिं निग्गंथेहि.....एमहालियं द्वारा उत्पन्न विक्षेपों से तुम रात में मुहूर्त भर भी आंख च णं राइं तुमं नो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं नहीं मूंद सके। निमिल्लावेत्तए।
मेघ! तब तुमने ऐसा चिंतन किया कि जब मैं पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था जया णं गृहवासी था, तब ये श्रमण निग्रंथ मेरा आदर करते थे। अहं अगारमज्झावसामि तया णं ममं समणा मेरी ओर ध्यान देते थे। मेरा सत्कार करते थे। सम्मान निम्गंथा आढायंति परियाणंति सक्कारेंति करते थे। अर्थ. हेत. प्रश्न. कारण और व्याकरण का सम्माणेति अट्ठाई हेऊइं पसिणाइं कारणाई वा- आख्यान करते थे। इष्ट और कमनीय वाणी से आलापगरणाई आइक्खंति। इठाहिं कंताहिं वग्गूहिं संलाप करते थे। जिस क्षण से मैं मुंड हुआ हूं, अगार से आलवेति-संलवेति। जप्पभिइंच णं मंडे भवित्ता अनगार बना हं। ये श्रमण-निग्रंथ न मेरा आदर करते हैं, अगाराओ अणगारियं पव्वयामि तप्पभिइं च णं ममं न इष्ट एवं कमनीय वाणी से आलाप-संलाप करते हैं। समणा निग्गंथा नी आढायंति जाव संलवेंति। अदुत्तरं च णं ममं समणा निम्गंथा राओ पुव्वरत्ता- ये श्रमण-निग्रंथ मध्यरात्रि में विक्षेप पैदा कर देते हैं। वरत्त-कालसमयंसि अप्पेगइया जाव पाय-रय- अतः मेरे लिए उचित है कि मैं प्रातः होते ही श्रमण रेण-गंडियं करेंति। तं सेयं खल मम कल्लं भगवान महावीर को पूछ पुनः घर में चला जाऊं। पाउप्पभायाए रयणीए जाव समणं भगवं महावीर आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमझे आवसित्तए..... से नूणं मेहा! एस अत्थे समत्थे?
मेघ! क्या यह बात सही है? हंता! अत्थे समत्थे।
हां, भंते!, ......अज्जप्पभित्ती णं भंते! मम दो अच्छीणि भगवान महावीर के द्वारा संबुद्ध होने पर मुनि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं निग्गंथाणं निसट्टे मेघकुमार ने पुनः संकल्प किया-दो आंखों के सिवाय मैं त्ति कटु पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ । अपने अवशेष शरीर का श्रमण निग्रंथों के लिए व्यत्सर्ग नमंसइ।
करता हूं।
शैक्ष की सेवा न करने पर उसमें इस प्रकार की मनोवृत्ति उत्पन्न होती है।
उपेक्षा सेवा की : विधान प्रायश्चित्त का ३६.जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा ण गवेसति, णं गवसंतं जो भिक्षु किसी श्रमण को बीमार सुनकर उसकी • वा सातिज्जति।
गवेषणा नहीं करता और गवेषणा न करनेवाले दूसरे का अनुमोदन करता है।
३७.जे भिक्खु गिलाणं सोच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा
गच्छति, गच्छंतं वा सातिज्जति।
जो भिक्ष किसी श्रमण को बीमार सनकर उन्मार्गमूल मार्ग को छोड़कर प्रतिमार्ग-पगडंडी से चला जाता है और जानेवाले दूसरे का अनुमोदन करता है।
३८.जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुदिठयस्स सएण जो भिक्षु रुग्ण मुनि की सेवा में उपस्थित हो, उसे लाभेण असंथरमाणस्स, जो तस्स न पडितप्पति, प्राप्त होने वाला लाभ-भोजन-पानी पर्याप्त उपलब्ध न