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प्रायोगिक दर्शन
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. महावीर और शूलपाणि यक्ष १९. तत्थ पुण अतिगामे वाणमंतरघरे जो रत्तिं परिवसति, तत्थ सो सूलपाणी संनिहितो। तं रत्तिं वाहेत्ता पच्छा मारेति । ताहे तत्थ लोगो दिवसं अच्छिऊणं पच्छा विगाले अन्नत्थ वच्चति । इंदसम्मोऽवि धूवं दीवगं दातुं दिवसतो चेव जाति।
इतो य तत्थ सामी आगतो दूइज्जंतगाण पासाती । तत्थ य सव्वलोगो तद्दिवसं पिंडितो अच्छति। सामिणा देवकुलितो अणुन्नवितो । सो भणति - गामो जाणति । सामिणा गामो मिलितओ अन्नवितो । सो गामो भइ - ण सक्का एत्थ सिउं पुज्जे !
सामी भणति - णवर तुभे अणुजाण ।
ता भणति - ट्ठाह, तत्थेक्क्रेक्का वसहिं देंति ।
सामि च्छति । भगवं जाणति - सो संबुज्झि• हितित्ति । ताहे गंता एगकोणे पडिमं ठितो ।
ताहे सो. इंदसम्मो सूरे धरेंते चेव धूवपुप्फं दाऊण कम्पडियकरोडिया सव्वे पलोएत्ता तंपि देवज्जगं भणति - तुब्भे वि णीह, मा मारिज्जिहि ।
भगवं तुसिणीओ अच्छति ।
ताहे सो वंतरो चिंतेति - देवकुलिएण गामेण य भन्नतोऽवि न जाति, पेच्छ से अज्ज जं करेमि । ताहे सझाए अट्टट्टहासं मुयंतो बीहावेइ। भीमं अट्टहासं मुयंतो ताहे भेसेउं पवत्तो। ताहे सव्वो लोगो तं सद्दं सोऊण भीतो । भणति - एस सो देवज्जतो मारिज्जति ।
तस्थ य उप्पलो नाम नेमित्तिओ । भोमउप्पातसिमिणतलिक्ख अंगसरलक्खणवंजणअट्ठगमहा-निमित्त जाणओ जणस्स सोऊण चिंतेति-मा
अ. १ : समत्व
हैं, तप करते हैं और स्वतंत्र चर्या करते हैं।
अस्थिक गांव में एक व्यंतरगृह था। वहां शूलपाणि यक्ष रहता था । जो कोई रात्रि में वहां प्रवास करता उसे पहले वह कष्ट देता और फिर मार देता । इसलिए उधर आने वाले राहगीर दिन में वहां ठहरकर संध्या के समय अन्यत्र चले जाते । व्यंतरगृह का पुजारी इन्द्रशर्मा भी धूपदीप कर दिन रहते-रहते अपने घर चला जाता।
स्वामी (भगवान् महावीर ) ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए वहां आए। उस दिन गांव के सभी लोग वहां एकत्रित थे। महावीर ने पुजारी से व्यंतरगृह में रहने की अनुमति मांगी। पुजारी ने इस बात को ग्रामवासियों पर छोड़ दिया। महावीर ने ग्रामवासियों से अनुमति चाही । प्रत्युत्तर में लोगों ने कहा- आप यहां रह नहीं सकेंगे।
मैं केवल तुम्हारी अनुमति चाहता हूं- महावीर ने
कहा।
अच्छा, आप ठहरें। पर यहां नहीं, हमारी बस्ती में उपस्थित लोगों ने प्रार्थना की।
महावीर ने इसे अस्वीकार कर दिया। क्योंकि वे जानते थे कि वहां रहने से यक्ष को संबोध प्राप्त होगा । अतः व्यंतरगृह में रहने की अनुमति प्राप्त कर महावीर उसमें गए और एक कोने में ध्यान प्रतिमा में स्थित हो
गए।
दिन रहते-रहते धूप-दीप कर इन्द्रशर्मा ने भिक्षाचरों को देखा। वहां कोई नहीं था। महावीर से कहा -देवार्य ! तुम भी यहां मत रहो। यहां रहकर मौत को निमंत्रण मत दो।
महावीर मौन रहे।
यक्ष से सोचा- पुजारी और ग्रामवासियों के कहने पर भी यह नहीं जाता है तो देखो, आज मैं क्या करता हूं ?
सन्ध्या को भयंकर अट्टहास करता हुआ यक्ष महावीर को भयभीत करने लगा। उस अट्टहास को सुन सब लोग भय से कांप उठे । परस्पर कहने लगे-देखो, वह देवार्य मारा जा रहा है।
उसी गांव में उत्पल नाम का नैमित्तिक था। वह अष्टांग महानिमित्त-भौम, उत्पात, स्वप्न, अंतरिक्ष, अंग, स्वर, लक्षण एवं व्यंजन का ज्ञाता था। लोगों की बात