SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन ५७० खण्ड-४ इनमें अंतिम चार भाव शस्त्र हैं। ६. संजुत्ताहिकरणे। शस्त्र के पुर्जे आदि बनाना और अलग-अलग पुर्जी को मिलाकर उसे प्रयोग योग्य बनाना। अहिंसा का अणुव्रत स्वीकार करनेवाले श्रावक के लिए यह अनाचरणीय है। ७. अत्थि सत्थं परेण परंणत्थि असत्थं परेण परं। शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होता है। अशस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण नहीं होता। वह एक रूप होता है। रथमूसल संग्राम और नागदौहित्र वरुण ८. बहुजणे णं भंते! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव गौतम ने प्रश्न किया-भंते! बहुत से लोग परस्पर परूवेइ-एवं खलु बहवे मणुस्सा अण्णयरेसु इस प्रकार चर्चा कर रहे थे कि छोटे-बड़े किसी संग्राम में उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा युद्ध करते समय बहुत से व्यक्ति हत-प्रहत हो जाते हैं। वे कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएस आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में देवत्ताए उववत्तारो भवंति। देवरूप में उत्पन्न होते हैं। से कहमेयं भंते! एवं? भंते! यह कैसे? . गोयमा!.....जे ते एवमाहंस मिच्छं ते एवमाहंस। गौतम ! ऐसा जो कहते हैं, वह सही नहीं है। गौतम! अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि- मैं इस विषय में ऐसा कहता हूंएवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वैशाली नाम की नगरी। 'नाग का दौहित्र वरुण वेसाली नाम नगरी होत्था। तत्थ णं वेसालीए कुमार। वह ऋद्धि युक्त यावत् . अनेक लोगों द्वारा नगरीए वरुणे नामं नागनत्तुए परिवसइ। अड्ढे जाव अपराभूत। वह श्रमणों का उपासक था। जीव-अजीव का अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे। ज्ञाता था। तए णं से वरुणे नागनत्तुए अण्णया कयाइ रथमूसल संग्राम के उपस्थित होने पर गणराज्य तथा रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं सेना के निर्देशानुसार वरुण ने संग्राम में भाग लिया। रहमुसले संगामे आणत्ते समाणे छट्ठभत्तिए संग्राम में जाने के पूर्व उसने तेले की तपस्या की। तपस्या अट्ठमभत्तं अणुवट्टेति, अणुवढेत्ता पूर्ण कर कौटुंबिक पुरुष-अधिकारी व्यक्तियों को बुलाया कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी- और कहा-चातुर्घटिक अश्वरथ को तैयार करो। खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरह चतुरंगिणी सेना को सजाओ। पूरी तैयारी कर मुझे इस जुत्तामेव उवट्ठावेह। हय-गय-रह-पवर- विषय में सूचना दो। जोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता १. भगवान महावीर के समय यह मत प्रचलित था कि युद्ध में मरने वाला स्वर्ग में जाता है। गीताकार ने भी इसी मान्यता का समर्थन करते हुए कहा-'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग.......'। लोकवाद में भी यह सूक्त प्रचलित था-प्रमाद 'जिते च लभ्यते लक्ष्मीः मृते चापि सुरांगना। क्षणभंगुरको देहः का चिंता मरणे रणे॥ भगवान महावीर अहिंसा के प्रवचनाकार थे। उन्हें यह मत मान्य नहीं था। युद्ध के विरोध में उन्होंने एक सशक्त स्वर उठाया और इस बात का प्रतिवाद किया कि युद्ध लड़ने से कोई स्वर्ग में जाता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy