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समणसुत्तं
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अ.३: तत्त्व-दर्शन ६५४. ओगाढ-गाढ-णिचिदो,
यह सम्पूर्ण लोक इन सूक्ष्म-बादर पुद्गल-स्कंधों से पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो। ठसाठस भरा हुआ है। उनमें से कुछ पुद्गल कर्मरूप में - सहुमेहि बादरेहि य
परिणमन के योग्य होते हैं और कुछ अयोग्य। . अप्पाओगेहिं जोग्गेहिं॥
कर्मरूप में परिणमित होने के योग्य पुद्गल जीव के रागादि (भावों) का निमित्त पाकर स्वयं ही कर्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं। जीव स्वयं उन्हें (बलपूर्वक) कर्म के रूप में परिणमित नहीं करता।
६५५. कम्मत्तणपाओग्गा,
खंधा जीवस्स परिणइं पप्प। गच्छंति कम्मभावं,
. नहि ते जीवेण परिणमिदा॥ ६५६. भावेण जेण जीवो,
__ पेच्छदि जाणादि आगदं विसये। रज्जदि तेणेव पुणो,
बन्झदि कम्म त्ति उवदेसो॥
जीव अपने राग या द्वेषरूप जिस भाव से संपृक्त होकर इन्द्रियों के विषयों के रूप में आगत या ग्रहण किये गये पदार्थों को जानता-देखता है, उन्हीं से उपरक्त होता है और उसी उपरागवश नवीन कर्मों का बन्ध करता है।
६५७. सव्वजीवाणं कम्मं तु, संगहे छहिसागयं।
सव्वेसु वि. पएसेसु, सव्वं सव्वेण बलगं॥
सभी जीवों के लिए संग्रह (बद्ध) करने के योग्य कर्मपुद्गल छहों दिशाओं में सभी आकाशप्रदेशों में विद्यमान हैं। वे आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ बद्ध होते हैं।
६५८. तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं।
कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं॥
व्यक्ति सुख-दुःखरूप जो भी कर्म करता है, वह अपने उन कर्मों के साथ ही परभव में जाता है।
६५९. ते ते कम्मत्तगदा,
. पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स। . . संमायते देहा,
देहतर-संकमं पप्प॥
इस प्रकार कर्मों के रूप में परिणत वे पुद्गल-पिंड देह से देहान्तर को प्राप्त होते रहते हैं। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म के फलरूप में नया शरीर बनता है और नया शरीर पाकर नवीन कर्म का बंध होता है।