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________________ आत्मा का दर्शन ३१२ खण्ड-३ एक संत का कंबल चोरी में चला गया। उसने रिपोर्ट लिखाई कि मेरा बिछौना, सिरहाना, रजाई, कंबल चोरी में चला गया। एक दिन चोर पकड़ा गया। कंबल भी उसके पास था। थानेदार ने पूछा यह किसका है ? कहा- 'संत का है।' पूछा-' और क्या-क्या चीजें वहां से लाया ?' कहा- कुछ भी नहीं, बस यही कंबल' संत को बुलाया और पूछा- 'क्या यही है आपका कंबल ?' कहा - 'हां' थानेदार ने कहा- 'चोर कहता है आपकी रिपोर्ट झूठी है। इसके सिवाय वहां कुछ था ही नहीं। फिर आपने इतनी चीजें कैसे लिखाई ।' संत ने हंसते हुए कहा - 'यही तो सब कुछ है। सर्दी में ओढ़ लेता हूं, गर्मी में बिछा लेता हूं, सिरहाने भी दे लेता हूं।' धर्म जब सब कुछ हो जाता है तभी धर्म की सुगंध आ सकती है। धर्म का संबंध बाह्य पदार्थ-जगत् से नहीं, वह आत्मा का गुण है और उससे वही मिलना चाहिए, जो कि उसके द्वारा प्राप्य है। धर्म से अन्य उपलब्धियों की चर्चा केवल रोते हुए बच्चे को खिलौना देकर चुप करने जैसी है वे उसका स्वभाव नहीं हैं। विभाव से स्वभाव की उपलब्धि आकाश कुसुम जैसी है। धर्म ज्ञान - दर्शन - चारित्र है। धर्म निज का उदात्त, शुद्ध, आनंदमय स्वरूप है उस धर्म का अनुचिंतन कर, उसकी शरण में स्वयं को छोड़ कर साधक अंतः स्थित महान् साथी (स्वयं) को प्राप्त कर लेता है। सुकरात को जहर दिया जा रहा था। किसी ने कहा- 'यदि आप बोलना बंद कर दें तो सजा माफ की जा सकती है।' सुकरात रूढ़ियों के विरुद्ध और धर्म के यथार्थ स्वरूप की चर्चा करते थे। परम्परा के विरुद्ध बोलना लोगों को कैसे सहन हो सकता था ? सुकरात ने कहा- 'जीवन को देख लिया, अब मृत्यु को भी देख लूंगा । किन्तु बोलना कैसे रुक सकता है ?. मेरा होना ही सत्य के लिए है। मैं और सत्य भिन्न नहीं है मेरे होने का अर्थ है-सत्य का उद्घाटन। इसलिए विष बड़ी चीज नहीं है, सत्य बड़ा है।' सुकरात को जहर दे दिया गया और वे अपनी मृत्यु की घटना को देखते-देखते विदा हो गये। अपने स्वरूप का परिचय करना धर्म भावना है। ११. लोक भावना - सम्पूर्ण विश्व, जो पुरुषाकृति है, का चिंतन करना लोक भावना है। जड़ और चेतन का यह आवास स्थल है। मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, सूर्य, चन्द्र, नारक, देव और मुक्तांत्मा (सिद्धि - स्थान ) - ये सब लोक की सीमा के अंतर्गत हैं। साधक लोक की विविधता का दर्शन कर और उसके हेतुओं का विचार कर अपने अंतः स्थित चेतना (आत्मा) का ध्यान करें। वह सोचे-राग और द्वेष की उठने वाली तरंगों का यह परिणाम है। लोक-भावना का अभिप्राय है इस वैविध्य और वैचित्र्य का सम्यग् अवलोकन कर स्वयं को सतत तटस्थ बनाये रखना। १२. बोधि दुर्लभ भावना - मनुष्य का जन्म दुर्लभ है और बोधि उससे अधिक दुर्लभ है। मौनीज यहूदी संत के मृत्यु की सन्निकट वेला थी । पुरोहित पास में खड़ा मंत्र पढ़ रहा था। उसने कहा - 'मूसा का स्मरण करो, यह अंतिम क्षण है । ' मौनीज ने आंखें खोली और कहा, 'हटो यहां से। मेरे सामने नाम मत लो मूसा का । ' पुरोहित को आश्चर्य हुआ, सब देखते रहे, यह कैसी बात ? पुरोहित ने कहा- 'जीवन भर जिनका गीत गुनगुनाया, हज़ारों लोगों को सन्देश दिया और अब यह क्या कह रहे हो ? जिन्दगी की सारी प्रतिष्ठा धूल में मिला रहे हो ?' मैनीज ने कहा, मैं जानता हूं। किन्तु अभी प्रश्न वैयक्तिक है। मूसा यह नहीं पूछेगा कि तुम मूसा क्यों नहीं हुए। वह पूछेगा कि तुम मौनीज क्यों नहीं हुए? स्वयं का होना बोध है। जीवन में सब कुछ पाकर भी जिसने बोधि नहीं पाई, उसने कुछ नहीं पाया और बोधि पाकर जिसने कुछ नहीं पाया उसने सब कुछ पा लिया। मरने के बाद सब कुछ छूट जाता है, खो जाता है, वह हमारी अपनी सम्पत्ति नहीं है। संबोधि अपनी सम्पत्ति है, उसे खोजना है। अनेक अनेक योनियों में पैदा हुए और मरे, किन्तु स्वयं के अस्तित्व को नहीं पहचाना। जन्म के पूर्व और मरने के बाद भी जिसका अस्तित्व अखंड रहता है, उसकी खोज में निकलना बोधि भावना का अभिप्राय है। आचार्य शुभचंद्र ने लिखा है-'भावनाओं में रमण करता हुआ साधक इसी जीवन में दिव्य मुक्तानंद का स्पर्श कर लेता है। कषायाग्नि शांत हो जाती है, पर द्रव्यों के प्रति जो आसक्ति है वह नष्ट हो जाती है, अज्ञान का उन्मूलन होता है और हृदय में बोध- प्रदीप प्रज्वलित हो जाता है। ' बारह भावनाओं के अतिरिक्त चार भावनाओं का और उल्लेख मिलता है वे है-१. मैत्री २. प्रमोद ३. करुणा ४, उपेक्षा बुद्ध ने इन चारों को 'ब्रह्म विहार' कहा है। पतंजलि ने मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्य-विषयाणां
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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