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संबोधि
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अ. १२ : ज्ञेय - हेय - उपादेय भावनातश्चित्तप्रसादनम्।' सुख, दुःख, पुण्य और पाप इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, करुणा, आनंद, प्रसन्नता और उपेक्षा का भाव धारण करने से चित्त प्रसन्न होता है, ऐसा कहा है।
१. मैत्री भावना - मनुष्य के ज्ञात संबंधों की कड़ी बहुत छोटी है और अज्ञात की श्रृंखला बहुत प्रलंब है। ज्ञात स्पष्ट है और अज्ञात अस्पष्ट, इसलिए शत्रु-मित्र आदि की कल्पनाएं खड़ी होती हैं। अज्ञात सामने आ जाए तो ये भाव स्वतः शांत हो सकते हैं। जन्म-मृत्यु की लंबी परंपरा कौन अपरिचित है? किन्तु इसे साधारण लोग नहीं समझते। साधक आत्म- तुला के पथ पर अग्रसर होता है, उसे यह स्पष्ट हो जाए तो बहुत अच्छा है, किन्तु बहुत कम व्यक्तियों को अतीत ज्ञात होता है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि मैं पहले भी था, अब भी हूं और आगे भी रहूंगा। अतीत में था तो कहां था, कौन मेरे संबंधी थे, आदि प्रश्न स्वतः खड़े हो जाते हैं। इस दृष्टि से साधक का मन सबके प्रति मित्रभाव धारण कर लेता है। 'मित्ति मे सव्वभूएस, वेरं मज्झ न केणई'- मेरा सबके साथ मैत्री भाव है। कोई मेरा शत्रु नहीं है।' अंतश्चेतना से जैसे-जैसे यह भाव पुष्ट होता जाता है वैसे-वैसे साधक के मन में शत्रुता का भाव नष्ट होता जाता है। मित्र मन सर्वत्र प्रसन्न ह है और अमित्र -मन अप्रसन्न शत्रु मन अशांत, हिंसक, घृणायुक्त और क्लिष्ट रहता है उसमें प्रतिशोध की आग निरंतर प्रज्वलित रहती है। मित्र- मन में ये सब दोष नष्ट हो जाते हैं। उसे भय नहीं रहता।
मैत्री भावना का साधक स्वयं अपने को कष्ट में डाल सकता है, किन्तु दूसरों को कष्ट नहीं देता। उसकी दृष्टि में पर शत्रु जैसा कोई रहता ही नहीं शत्रु का भाव ही अनिष्ट करता है। खलीफा अली अपने शत्रु के साथ वर्षों लड़ता रहा। एक दिन शत्रु हाथ में आ गया। उसकी छाती पर बैठ भाला मारने वाला ही था, इतने में शत्रु ने मुंह पर थूक दिया। अली को एक क्षण गुस्सा आया और बोला- 'आज नहीं लड़ेंगे।' लोगों ने कहा, 'कैसी मूर्खता कर रहे हैं?' वर्षों से शत्रु हाथ आया और आप छोड़ रहे हैं।' अली ने कहा-'कुरान का वचन है-क्रोध में मत लड़ो।' मुझे गुस्सा आ गया। शत्रु को बड़ा 'आश्चर्य हुआ। उसने पूछा-'इतने वर्षों क्या आप बिना क्रोध के लड़ रहे थे ?' अली ने उत्तर दिया- 'हां।' शत्रु चरणों में गिर पढ़ा। उसे पता ही आज चला कि बिना क्रोध के भी लड़ा जा सकता है। वह मित्र हो गया। लड़ने का हेतु भिन्न हो सकता है, किन्तु क्रोध में नहीं लड़ना - यह मित्रता का परिचायक है। मैत्रीभाव का विराट् रूप जब सामने आता है तब द्वैत नहीं रहता। ‘आयतुले पयासु’- प्राणियों को अपने समान देखो - यह उसका फलितार्थ है ।
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२. प्रमोद भावना - प्रमोद का अर्थ है - प्रसन्नता । जो स्वयं में प्रसन्न नहीं होता, प्रमोद भावना को समझना उसके लिए कठिन होता है जो अपना मित्र बनता है, वही प्रमोद - प्रसन्न रह सकता है। जिसकी अपने में प्रसन्नता है उसकी सर्वत्र प्रसन्नता है। वह ·अप्रसन्नता को देखता नहीं। अपने से जो राजी नहीं है, वही दूसरों के दोष देखता है, दूसरों की प्रसन्नता - विशिष्टता से ईर्ष्या करता है। दूसरों के गुणों को देखकर व्यक्ति स्वयं का प्रमोद भावना के द्वारा कितना ही भावित करे, किन्तु ईर्ष्या की ग्रंथि खुलनी कठिन है, भले ही कुछ देर के लिए मन को तृप्त करले । जिसे ईर्ष्या से मुक्त होना है उसे सतत प्रसन्नता का जीवन जीना चाहिए। यह कोई असंभव नहीं है जो कुछ प्राप्त है, उसमें सदा प्रसन्न रहे । अतृप्ति को पास फटकने न दे। जैसे-जैसे हम अपने से राजी होते जाएंगे, कोई वासना नहीं रहेगी तब सहन ही दूसरों की विशेषताएं या अविशेषताएं हमारे लिए कोई महत्त्वपूर्ण नहीं होंगी विशेषताएं जहां प्रसन्नता के लिए होंगी वहां अविशेषताएं करुणा उत्पन्न करेंगी। जैसे एक व्यक्ति विकास के चरम पद को पा सकता है वैसे दूसरा भी पा सकता है, किन्तु वह अपने को गलत दिशा में नियोजित कर रहा है, इसलिए करुणा का पात्र है। स्वयं में प्रसन्न रहना सीखें, फिर दूसरों से अप्रसन्नता भी नहीं आयेगी और दूसरों के गुणों के उत्कर्ष से अप्रसन्नता भी नहीं होगी।
३. करुणा भावना - करुणा मैत्री का प्रयोग है जिसका सब जगत् मित्र है, उसकी करुणा भी जागतिक हो जाती है। उस करुणा का संबंध पर सापेक्ष नहीं होता। वह भीतर का एक बहाव है जो प्रतिपल सरिता की धारा की तरह प्रवाहित रहता है। महावीर, बुद्ध, जीसस आदि संत इसके अनन्यतम उदाहरण हैं। महायान बौद्ध कहते हैं-बुद्ध का निर्माण हुआ। वे निर्वाण के द्वार पर रुक गये। कहा भीतर आओ। बुद्ध कहते हैं-जब तक समस्त प्राणी दुःख से मुक्त नहीं होते तब तक मैं भीतर कैसे आ सकता हूं? प्रेम का हृदय - सागर जब छल-छला जाता है, तब करुणा की ऊर्मियां