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आत्मा का दर्शन
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खण्ड - ३
तट पर टकराने लगती हैं। जितने भी संत बोले हैं, वे सब प्रेम मैत्री के मूर्त रूप थे और वह प्रेम करुणा के माध्यम से वाणी के द्वारा बाहर बहा है।
अमेरीकन विचारक हेनरी धारो से एक व्यक्ति मिलने के लिए आया। हाथ मिलाया और तत्क्षण हेनरी ने हाथ छोड़ दिया। कहा- यह हाथ जीवंत नहीं है, मृत है इसमें प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहानुभूति नहीं है यह उदात्त प्रेम की सूचना है। करुणा सौहार्द्र आदि गुण मनुष्य की आंतरिक चेतना की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
हजरत उमर ने एक व्यक्ति को किसी प्रान्त का गर्वनर नियुक्त किया। नियुक्ति पत्र लिखा और आवश्यक सूचना दी। इतने में एक छोटा बच्चा आ गया। हजरत उसे प्रेम करने लगे। उसने कहा, 'मेरे दस बच्चे हैं, किन्तु मैंने इतना प्रेम और इस प्रकार आलाप संलाप कभी नहीं किया।' हजरत ने वह नियुक्त पत्र वापिस लेकर फाड़ते हुए कहा- 'जब तुम अपने बच्चों से भी प्रेम नहीं कर सकते, तब प्रजा से प्रेम की आशा मैं कैसे करूं?
एक संत के पास एक व्यक्ति संन्यासी बनने आया संत ने पूछा- क्या तुम किसी से प्रेम करते हो ?' उसने कहा----' आप क्या बात कर रहे हैं? मेरा किसी से प्रेम नहीं है।' संत ने कहा- 'तब मुश्किल है। प्रेम अगर हो तो उसे व्यापक बनाया जा सकता है, किन्तु है ही नहीं, तब मैं क्या करूं?' प्रेम, करुणा, सहानुभूति ये अंतस्तल के सूचनासंस्थान हैं। दुःखी, पीड़ित, त्रस्त व्यक्ति को देखकर जो करुणा का भाव जागृत होता है वह यह सूचना है कि आपका चित्त कोमल, मृदु और प्रेम से शून्य नहीं है। उसी करुणा को आत्मा से जोड़ना है, दुःख के कारणों को मिटाना है, जिससे अनंत करुणा का जन्म हो सके।
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४. उपेक्षा भावना - अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों ही स्थितियों में सर्वत्र सम रहना 'उपेक्षा' है। साधक को न पदार्थों जुड़ना है और न बिछुड़ना है। पदार्थ पदार्थ है। उसमें राग-द्वेष नहीं है। राग-द्वेष है अपने भीतर । जब आदमी किसी से जुड़ता है तो राग और बिछुड़ता या घृणा करता है तो द्वेष आता है। साधक को कहीं भी राग और द्वेष दिखाई दे, वह तत्काल उनकी उपेक्षा कर अपने भीतर चला जाये। यह जैसे पदार्थों के साथ होता है, वैसे व्यक्ति के व्यक्तित्व, रूप, विशिष्ट कौशल आदि पर भी होता है। भिक्षु वक्कलि बुद्ध के रूप पर इतना मुग्ध हो गया, उसे ही निहारता रहता। बुद्ध ने कहा- 'क्या है वक्कलि मेरे इस शरीर में? जैसा हाड़, मांस, रक्त आदि तुम्हारे शरीर में है, वैसे ही इसमें है। रूप को देखना है, तो बुद्ध के धर्म कार्य का रूप देखो जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है यह भी बंधन है। आनंद बुद्ध से बंधे रहे। गौतम महावीर से बंधे रहे। बंधन का मार्ग सरल है। मनुष्य बंधन-प्रिय है। पर वह बंधन छोड़ता है तो दूसरा कही न कहीं जोड़ लेता है। उपेक्षा करना कठिन है। उपेक्षा भावना का साधक कहीं किसी भी जड़ और चेतन के साथ बंधता नहीं। वह आने वाले समस्त बंधनों की उपेक्षा कर तटस्थ भाव से अपने ध्येय में गति करता रहता है।
अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बने । संसद में भाषण देने जब खड़े हुए, तब किसी ने व्यंग्य कसा। कहा- आपको याद है, आप चमार के लड़के हैं। लिंकन ने कहा- धन्यवाद, आपने पिता का स्मरण दिलाया और मैं आगे आपसे कहना चाहता हूं, मेरे पिताजी कुशल चमार थे। मैं इतना कुशल राष्ट्रपति नहीं बन सकूंगा। दूसरी बार फिर कहा- 'वे जूते बनाते थे ।' लिंकन बिल्कुल उत्तेजित नहीं हुए। उसी तटस्थ भाव से कहा-'हां, किन्तु किसी ने कभी कोई शिकायत नहीं की। क्या आपको कोई शिकायत है ?'
साधक जब उपेक्षा भावना में निष्णात हो जाता है तब हर्ष और विषाद, सुख और दुःख, सम्मान और अपमान आदि द्वंद्व सहजतया क्षीण होते चले जाते हैं।
भावना के अभ्यास के लिए एक सहज सरल विधि का प्रयोग आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने इस प्रकार बतलाया है- 'भावना का अभ्यास निम्न निर्दिष्ट प्रक्रिया से करना इष्ट सिद्धि में अधिक सहायक हो सकता है। साधक पद्मासन आदि किसी सुविधाजनक आसन में बैठ जाए। पहले श्वास को शिथिल करे फिर मन को शिथिल करे। पांच मिनट तक उन्हें शिथिल करने के लिए सूचना देता जाए। वे जब शिथिल हो जाएं तब उपशम आदि पर मन को एकाग्र करें। इस प्रकार निरंतर आधा घंटा तक अभ्यास करने से पुराने संस्कार विलीन हो जाते हैं और नए संस्कारों का निर्माण होता है।'