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________________ संबोधि ३१५ ७७.सम्यग्दर्शनसंपन्नः श्रद्धावान् योगमर्हति। विचिकित्सां समापन्नः, समाधिं नैव गच्छति॥ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय जो सम्यग् दर्शन से संपन्न और श्रद्धावान् है, वह योग का अधिकारी है। जो संशयशील है, वह समाधि को प्राप्त नहीं होता। ७८.आस्तिक्यं जायते पूर्व, आस्तिक्याज्जायते शमः। शमाद् भवति संवेगो, निर्वेदो जायते ततः॥ ७९.निर्वेदादनुकंपा स्याद्, एतानि मिलितानि च। श्रद्धावतो लक्षणानि, जायन्ते सत्यसेविनः॥ (युग्मम्) पहले आस्तिक्य होता है, आस्तिक्य से शम होता है, शम से संवेग होता है, संवेग से निर्वेद होता है और निर्वेद से अनुकंपा उत्पन्न होती है। ये सब सत्यसेवी श्रद्धावान अर्थात् सम्यगदृष्टि के लक्षण हैं। ॥ व्याख्या ॥ इन श्लोकों में सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के लक्षणों का निरूपण किया गया है। वे पांच हैं : १. आस्तिक्य-आत्मा, कर्म आदि में विश्वास। २. शम-क्रोध आदि कषायों का उपशमन। ३. संवेग-मोक्ष के प्रति तीव्र अभिरुचि। ४. निर्वेद-वैराग्य। उसके तीन प्रकार हैं-संसार-वैराग्य, शरीर-वैराग्य और भोग-वैराग्य। ५. अनुकंपा-कृपा भाव, सर्वभूतमैत्री-आत्मौपम्य भाव। प्राणीमात्र के प्रति अनुकंपा। ..' अहिंसा दया का पर्यायवाची नाम है। पंचाध्यायी में इसका बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है। उसमें कहा है-'जो समग्र प्राणियों के प्रति अनुग्रह है, उस अनुकंपा को दया जानना चाहिए। मैत्रीभाव, मध्यस्थता, शल्य-वर्जन और वैर-वर्जन ये अनुकंपा के अंतर्गत हैं। इससे दया का विशद स्वरूप हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है। जिस दया में किसी का भी उत्पीड़न नहीं होता, वस्तुतः वही सच्ची अनुकंपा है, दया है। गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-'भंते! दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है?' भगवान ने कहा-'गौतम! दर्शनसम्पन्नता से विपरीत दर्शन का अंत होता है। दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नहीं। वह अनुत्तरज्ञान से आत्मा को भावित करता रहता है। यह आध्यात्मिक फल है। व्यावहारिक . फल यह है कि सम्यग्दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी गति का आयुष्य नहीं बांधता।' ८०.योगी व्रतेन संपन्नो, न लोकस्यैषणाञ्चरेत्। भावशुद्धिः क्रियाश्चापि, प्रथयन् शिवमश्नुते॥ व्रतों से संपन्न योगी लोकैषणा में नहीं फंसता। वह मानसिक शुद्धि और सक्रियाओं का विस्तार करता हुआ मोक्ष को प्राप्त होता है। ८१.न क्षीयन्ते न वर्धन्ते, सन्ति जीवा अवस्थिताः। अजीवो जीवतां नैति, न जीवो यात्यजीवताम्॥ जीव अवस्थित हैं, न घटते हैं और न बढ़ते हैं। अजीव कभी . जीव नहीं बनता और जीव कभी अजीव नहीं बनता। ८२.अवस्थानमिदं __ परिवर्तनमत्रैव, ध्रौव्यं, द्रव्यमित्यभिधीयते। अवस्थान को ध्रौव्य कहा जाता है और इसी में जो परिवर्तन पर्यायः परिकीर्तितः॥ होता है, उसे पर्याय कहा जाता है। ध्रौव्य और परिवर्तन-दोनों द्रव्य के अंश हैं। द्रव्य का अर्थ है-इन दोनों की समष्टि।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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