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संबोधि
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अ. १२ : ज्ञेय हेय - उपादेय फिर लौट जाते हैं। पथिकों के साथ तादात्म्य कैसा? उनका संयोग कितने दिनों का हो सकता है। एक सूफी साधक के घर बुढ़ापे में दो बच्चे पैदा हुए। वह बड़ा प्रसन्न हुआ। बच्चों के प्रति उसका असीम प्यार था। वह उन्हें बिना देखे नहीं रहता था। भोजन साथ में करता, मस्जिद साथ में ले जाता । एक दिन वे दोनों बच्चे खेल रहे थे। अचानक छत ऊपर से गिरी और दोनों बच्चे उसके नीचे दब कर मर गये पत्नी ने सोचा अब कैसे समझाऊं ? भोजन के लिए साधक आया, बच्चों को देखा नहीं, पूछा- कहां है? पत्नी ने कहा- आप भोजन कर लीजिये, खेलते होंगे। भोजन कर लिया। पत्नी ने पूछा- एक आदमी दो हीरे अमानत रखकर गया था, बहुत वर्ष हो गये, वह मांगने के लिए आया है, क्या वापिस कर देने चाहिए ?” उसने कहा- 'इसमें पूछने की क्या बात है? अपना है ही नहीं, आया है तो जल्दी वापिस लौटा देने चाहिए।' पत्नी ने कहा-आओ, मैं बताऊं।' वह वहां ले गई । कपड़ा हटाया और कहा- छत गिरने से दोनों की मृत्यु हो गयी। साधक बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कहा- नहीं थे तब भी प्रसन्न था और अब नहीं हैं तब भी प्रसन्न यह बीच का खेल था।'
समस्त योग-वियोग में अपने को अन्यों से न जोड़कर जीना ही अन्यत्व भावना का ध्येय है।
६. अशौच भावना साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह शरीर का सम्यक्दर्शन करे। आसक्ति का मूल शरीर है। शरीर के साथ सभी व्यक्ति बंधे हैं। शरीर का ममत्व नहीं टूटे तो साधना में प्रगति नहीं होती अशौच भावना उस बंधन को शिथिल करती है, तोड़ती है। बुद्ध ने इसके लिए 'कायगता स्मृति' का पूरा प्रयोग बतलाया है। 'कायगता स्मृति' की विशेषता के संबंध में बुद्ध कहते हैं 'भिक्षुओ! एक धर्म भावना करने और बढ़ाने से महा संवेग के लिए होता है, महा अर्थ (कल्याण) के लिए होता है, महा योग-क्षेम (निर्वाण) के लिए होता है, महा स्मृति - सम्प्रजन्य के लिए होता है, ज्ञान दर्शन की प्राप्ति के लिए होता है इसी जीवन में सुख से विहरने के लिए होता है। विद्या विमुक्ति फल के साक्षात्कार के लिए होता है। भिक्षुओं, वे अमृत का परियोग करते हैं जो कि कायगता स्मृति का परियोग करते हैं और भिक्षुओ, वे अमृत का परियोग नहीं करते जो कि कायगता स्मृति का परियोग नहीं करते ।
कायगता-स्मृति में संलग्न भिक्षु की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है- 'वह अरति (उदासी) और रति (कामभोगों की इच्छा) को पछाड़ने वाला होता है उसे अरति नहीं पछाड़ती है। वह उत्पन्न अरति को हटा हटा कर विहरता है। वह भय-भैरव को सहने वाला होता है। उसे भय भैरव नहीं पछाड़ते। वह उत्पन्न भय-भैरव को हटा हटाकर विहरता है। जाड़ा, गर्मी सहने वाला होता है। प्राण लेने वाली शारीरिक वेदनाओं को (सहर्ष) स्वीकार करने वाला होता है । '
आगम साहित्य में भी शरीर को अशुचि और अशुचि से उत्पन्न कहा है। महावीर गौतम को संबोधित कर कहते है-गौतम! तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं, इन्द्रिय और शरीर बल सब क्षीण हो रहा है तू देख और क्षणभर भी प्रमाद मत कर।' मदिरा के घड़े को कितना ही धोओ, वह अपनी गंध नहीं छोड़ता, ठीक इसी प्रकार शरीर को कितना ही स्वच्छ करो वह शुद्ध नहीं होता । प्रतिक्षण अनेकों द्वारों से अशुद्धि बाहर की ओर प्रवाहित हो रही है । मूढ़ मनुष्य उसमें शुद्धि का भाव आरोपित कर लेते हैं किन्तु विज्ञ व्यक्ति उसकी यथार्थता से परिचित होते हैं। साधक शरीर का सम्यक् निरीक्षण करे और उसकी आसक्ति को उखाड़कर अपने स्वरूप में अधिष्ठित बने । यद्यपि शरीर अपवित्र है, अशुचि है, किन्तु परमात्मा का मंदिर भी है। अशुद्धि का दर्शन कर ममत्व से मुक्त हो और साथ में परम-शुद्ध सनातनशिव- आत्मा का दर्शन भी करे केवल शरीर के प्रति घृणा का भाव प्रगाढ़ करने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। यही अशौच भावना का आशय है।
७-८. आस्रव संवर भावना आखव क्रिया है, प्रवृत्ति है और संवर अप्रवृत्ति तथा अक्रिया है आस्रव में विजातीय तत्त्व का संग्रह होता है और उससे भव-भ्रमण होता है। संवर विजातीय का अवरोधक है और संगृहीत जो है, उसका रेचन करता है, उसे बाहर फेंकता है निर्जरा तत्त्व प्रवृत्ति और निवृत्ति की चर्चा अन्यत्र की जा चुकी है।
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९. तपोभावना - योग और ध्यान प्रकरण के अंतर्गत तप का विस्तृत वर्णन किया जा चुका है। "
१०. धर्म भावना-धर्म का अर्थ है स्वभाव और वे साधन जिनसे व्यक्ति स्वयं में प्रतिष्ठित होता है। धर्म को त्राण, द्वीप, प्रतिष्ठा और गति कहा है। व्यक्ति जब धर्म को जान लेता है, उससे सम्यक् परिचित हो जाता है तब उसके लिए जो कुछ है वह सब धर्म ही है ।