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________________ आत्मा का दर्शन ३१० खण्ड-३ बनूंगा।' अनाथी मुनि ने कहा- तुम मेरे मालिक क्या बनोगे? पहले अपने खुद के मालिक बनो। अभी जिनके मालिक हो उनके गुलाम भी हो। मैंने खोजा, वह अपने भीतर है। जिस दिन तुम भी खोज लोगे, मालकियत टूट जाऐगी और एक नई मालकियत का जन्म होगा ।' डेनमार्क के एक विचारक ने लिखा है- 'असली चिंता तो तब पकड़ती है जब तुम्हें लगता है कि पैर के नीचे से जमीन खिसक गई।' यही एक ऐसा क्षण है जो भविष्य का फैसला करता है। किन्तु यदि इसके पूर्व में सच्चाई का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया हुआ हो तो प्रायः व्यक्ति भविष्य को अंधकारपूर्ण बना लेते हैं। वे मरते क्षण में शरीर को छोड़ रहे हैं किन्तु वासना को नहीं। वासना अपने ही लोगों और वस्तुओं के आस-पास चील की तरह मंडराती रह जाती है, और प्राणी मर कर पुनः उनके ही इर्द-गिर्द पैदा हो जाता है। महावीर, बुद्ध आदि ने कहा है- 'अपनी ही शरण जाओ। 'धम्मं सरणं पवज्जामि–स्वभाव की शरण खोजो ।' साधक बाहर से अत्राण को देखे और भीतर देखे जो है उसे । वह सदा है, उसी को पकड़ने से त्राण पाया जा सकता है। उसकी स्मृति एक क्षण भी विस्मृत न हो। यह सुरति स्मृति योग है। गुरु नानक ने कहा है, जो उसे नहीं भूलता, वही वस्तुतः महान् है । वह सच्ची संपत्ति है जो हमारे साथ जा सकती है। ३. भव-भावना- आज के वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करते हैं कि विश्व में पदार्थ सर्वथा नष्ट नहीं होते, केवल परिवर्तन होता रहता है। धार्मिक सदा से ही यह कहते आये हैं कि जीव और अजीव, चेतन और जड़-ये दो स्वतंत्र द्रव्य हैं। यह सम्पूर्ण विश्व इन दोनों की सृष्टि है ये दोनों अनादि हैं आत्मा विजातीय तत्त्व से सर्वथा मुक्त नहीं होता, तब तक उसे संसार में भ्रमण करना होता है। भव-भावना में साधक यह देखता है, अनुभव करता है कि मैं इस संसार में कब से भ्रमण कर रहा हूं। ऐसी कोई योनि नहीं है जहां मैं जन्मा नहीं हूं । प्रत्येक गति में अनेकशः उत्पन्न हो चुका हूं। क्या मैं इस प्रकार भ्रमण करता रहूंगा? वह देखता है योनियों में विविध कष्टों को और इस भव-भ्रमण के बंधन को चाहता है तोड़ता | राग और द्वेष भव-भ्रमण के मुख्य हेतु हैं। जब तक ये विद्यमान रहते हैं तब तक आत्मा का पूर्ण स्वातंत्र्य प्रगट नहीं होता । विविध योनियों के विविध रूपों में भ्रमण का चिंतन करना भव-भावना है। ४. एकत्व भावना 'एगो से सासओ अप्पा णाणदंसण लक्खणो । सेसो मे बाहिरा भावा, सब्वे संजोगलक्खणा ॥' ज्ञान-दर्शन स्वरूप शाश्वत आत्मा है, यही मैं हूं। इसके सिवा शेष सांयोगिक पदार्थ मेरे से भिन्न हैं, वे 'मैं नहीं हूं।' दूसरों के साथ अपने को इतना संयुक्त न करे कि जिससे स्वयं के होने का पता ही न चले इस एकत्व भावना में अपने को समस्त संयोगों से पृथक् देखता है। प्लोटिस ने कहा है-FLIGHT OF THE ALONE TO THE ALONE. ‘अकेले ही अकेले के लिए उड़ान है।' नमि राजर्षि ने कहा- 'संयोग ही दुःख है दो में शब्द होते हैं, अकेले में नहीं रानियां चंदन घिस रही थीं। चूड़ियों के शब्द कानों में चुभ रहे थे नमि राजर्षि ने कहा-बंद करो रानियां हाथ में एक-एक चूड़ी रख चंदन घिसने लगीं। शब्द बंद हो गया। नमि राजर्षि ने पूछा- क्या चंदन घिसना बंद कर दिया ? उत्तर मिला नहीं, घिसा जा रहा है।' तो शब्द क्यों नहीं हो रहा है, नमि ने पूछा। तब कहा - 'एक-एक चूड़ी है। एक चूड़ी कभी शब्द नहीं करती।' तत्क्षण यह सुनते ही वे प्रतिबुद्ध हो गये । और साधना-पथ पर चल पड़े। साधक सर्वत्र स्वयं के अकेले का अनुभव करे। यह सिर्फ कल्पना के स्तर पर ही नहीं, वस्तुतः जो है- अस्तित्व वह एक है, अकेला है। जिस दिन चैतन्य की अनुभूति में निमज्जन होने लगता है, शांति उस दिन स्वयं ही उसके द्वार खटखटाने लगती है। ५. अन्यत्व भावना–एकत्व और अन्यत्व - दोनों परस्पर संबंधित हैं। अन्य - दूसरों से स्वयं को पृथक् देखना एकत्व है और अपने से दूसरों को भिन्न देखना अन्यत्व है । 'पर' 'पर' है और 'स्व' 'स्व' है। 'पर' को अपना न माने। 'पर के और अपने बीच जो दूरी है, वह सदा बनी रहती है। किसी ने एक होटल के मालिक से पूछा- 'वह व्यक्ति ठीक आप जैसे लगता है, क्या आप भाई-भाई हैं? एक ही हैं आप ?' उसने कहा-'नहीं, बहुत दूरी है। हम अपने पिताजी के बारह लड़के हैं। पहला मैं हूं और वह बारहवां है। यह सृष्टि संयोगात्मक है। यह एक सराय है जहां पचिक विभिन्न दिशाओं से आकर मिलते हैं, विश्राम करते हैं और
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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