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| संबोधि
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अ. १२ : ज्ञेय हेय उपादेय साधक ध्यान के पूर्व और ध्यान के बाद भावनाओं के अभ्यास का सतत स्मरण करता रहे। उनसे एक शक्ति मिलती है, धीरे-धीरे मन तदनुरूप परिणत होता है। मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर सत्य की दिशा में अनुगमन होता है और एक दिन स्वयं को तथानुरूप प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। भावना और ध्यान के सहयोग से मंजिल सुसाध्य हो जाती है। साधक इन दोनों की अपेक्षा को गौण न समझे। सभी धर्मों ने भावना का अवलंबन लिया है।
भावनाएं विविध हो सकती हैं। जिनसे चित्त विशुद्धि होती है तथा अविद्या का उन्मूलन और विद्या की उपलब्धि • होती है-ये सब संकल्प और विचार भावनाओं के अंतर्गत हैं। फिर भी संतों ने उनका कुछ वर्गीकरण किया है। उन्हें बारह और चार इस प्रकार दो भागों में विभक्त किया है।
बारह भावनाएं
१. अनित्य भावना - जो कुछ भी दृश्य है, वह सब शाश्वत नहीं है। प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। बुद्ध ने कहा है-'सब क्षणिक है।' एक समय से अधिक कोई नहीं ठहरता। साधक की दृष्टि अगर खुल जाये तो उसे सत्य का दर्शन संसार का प्रत्येक पदार्थ दे सकता है, वही उसका गुरु हो सकता है। एक शिष्य वर्षों तक आचार्य के पास रहा परन्तु उसकी दृष्टि नहीं खुली। शिष्य हताश हो गया। गुरु ने कहा- अब तू यहां से जा, यहां नहीं सीख सकेगा।' वह आश्रम से चला आया । एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा। एक पत्ता टूट कर नीचे गिरा और दृष्टि मिल गई। गुरु के पास आया और बोला-घटना घट गई। गुरु ने पूछा- कैसे ? वृक्ष के नीचे बैठा था । पत्ता गिरा और अचानक मुझे स्मरण हो आया कि मुझे भी मरना-गिरना है। गुरु ने कहा- 'बस, उसे ही नमस्कार करना था, वही तेरा गुरु है।'
भरत चक्रवर्ती अपने कांच - महल में सिंहासन स्थित शरीर का अवलोकन कर रहे थे। अचानक उन्हें शरीर के परिवर्तन का बोध हुआ। यह वह शरीर है जो बचपन में था और अब जवानी में है, कितना बदल गया। सब कुछ परिवर्तन हो रहा है, किन्तु इस परिवर्तन के पीछे जो एक अपरिवर्तनीय सत्ता है, वह जैसे पहले थी अब भी वैसी ही है और आगे भी वैसी ही रहेगी। दृष्टि उपलब्ध हो गई। एक के अनित्य का दर्शन सबका दर्शन है जैसे यह शरीर बदल रहा है वैसे ही संपूर्ण पुद्गलों का परिवर्तन चल रहा है। वे संबोधि केवलज्ञान को उपलब्ध हो गए।
कारलाइल के जीवन में भी ऐसी ही घटना घटी। वह अस्सी वर्ष की अवस्था पार कर चुका था। अनेक बार बाथरूम में गया था। किन्तु जो घटना उस दिन घटी, वह कभी नहीं घटी। स्नान के बाद शरीर को पोंछते -पोंछते देखता है। वह शरीर कितना बदल गया। जीर्ण हो गया । किन्तु भीतर जो जानने और देखने वाला है वह जीर्ण नहीं हुआ, वह वैसा ही है। परिवर्तनीय के साथ अपरिवर्तनीय की झांकी मिल गई।
वैज्ञानिक कहते हैं, सात साल में पूरा शरीर बदल जाता है ! सत्तर वर्ष की अवस्था में दश बार सब कुछ नया उत्पन्न हो जाता है। लेकिन इस परिवर्तन की ओर दृष्टि बहुत कम जाती है। साधक के पास सबसे निकट शरीर है। और भी जड़चेतन जगत् जो निकट है, वह उसे एक विशिष्ट दृष्टि से देखे और अनुभव करे कि यह जगत् उसके लिए एक बड़ी प्रशिक्षण शाला है जो निरंतर प्रशिक्षण दे रही है अनित्य भावना में क्षण-क्षण बदलते हुए इस जगत् को और स्वयं के निकट जो है उसका दर्शन करे। केवल संकल्प न दोहराये कि सब कुछ अनित्य है, अनित्य है, किन्तु उसका अनुभव करे और उसके साथ अंतः स्थित अपरिवर्तनीय आत्मा की झलक भी पाये।
२. अशरण भावना यह भावना हमारे उन संस्कारों पर प्रहार करती है जो बाहर का सहारा ताकते हैं। यदि मनुष्य की समझ में यह तथ्य आ जाए कि अंततः मेरा कोई शरण नहीं है, तब सहज ही बाह्य वस्तु जगत् की पकड़ ढीली हो जाये। अन्यथा आदमी 'धन, परिवार, स्त्री, पुत्र, मित्र, मकान आदि सबको पकड़ता है। वह समझता है कि अंत में कोई न कोई मुझे अवलंबन देगा। यह भ्रम ही संग्रह का हेतु बनता है। धर्म कहता है-'कोई त्राण नहीं है छोड़ो अपनी पकड़ क्यों व्यर्थ ममत्व, मोह और पाप का संग्रह करते हो । बस, सिर्फ पकड़ छोड़ दो। जीवन से भागने की जरूरत नहीं । वाल्मीकि ने जब जाना तब एक क्षण में उससे मुक्त हो गया । अनाथी मुनि ने जब देखा - कोई मुझे रोग से मुक्त नहीं कर पा रहा है। सब असफल हो गये। तब दृष्टि भीतर की तरफ मुड़ी और देखा जो है, रोग उससे दूर है, मृत्यु दूर है, सब कुछ दूर है तो क्यों नहीं उसे ही अपना शरण बनाऊं। वह उसकी खोज में चला गया। सम्राट् श्रेणिक ने कहा- मैं तुम्हारा मालिक