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________________ प्रायोगिक दर्शन ५१९ अ. ८ : शिक्षा नहीं है। १३. संविभाग नहीं करता है। १४. विश्वसनीय अथवा प्रीतिकर नहीं है। शिक्षा के साधक तत्त्व ११.अह पन्नरसहिं ठाणेहि सुविणीए त्ति वुच्चई। निम्न निर्दिष्ट पन्द्रह प्रवृत्तियों का आसेवन करनेवाला नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले॥ सुविनीत शिक्षा के योग्य कहलाता हैअप्पं चाहिक्खिवई पबंधं च न कुव्वई। १. जो नम्र होता है। २. चपल नहीं होता। ३. मायावी मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लद्धं न मज्जई॥ · नहीं होता। ४. कुतूहल नहीं करता। ५. किसी पर आक्षेप न य पाक्परिक्खेवी न य मित्तेसु कुप्पई। नहीं करता। ६. क्रोध को टिकाकर नहीं रखता। ७. मैत्री अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई॥ रखनेवाले के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है। ८. ज्ञान कलहडमरवज्जए बुद्धे अभिजाइए। का मद नहीं करता। ९. स्खलना होने पर किसी का हिरिमं पडिसलीणे सुविणीए त्ति वुच्चई॥ तिरस्कार नहीं करता। १०. मित्रों पर क्रोध नहीं करता। ११. अप्रियता रखनेवाले मित्र की भी एकांत में प्रशंसा करता है। १२. कलह और हाथापाई का वर्जन करता है। १३. कुलीन होता है। १४. लज्जावान होता है। १५. प्रतिसंलीन-इन्द्रिय और मन का संगोपन करने वाला होता है। आचार्य भद्रबाहु और मुनि स्थूलभद्र १२.तंमि य काले बारसवरिसो दुक्कालो उवठितो। संजता इतो इतो य समुइतीरे अच्छित्ता पुणरवि पाडलिपुत्ते मिलिता। तेसिं अण्णस्स उद्देसओ अण्णस्स खंडं। एवं संघाडितेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि। दिदिठवादो नत्थि। मुनि स्थूलभद्र ने श्रुत का मद किया। आचार्य भद्रबाहु ने उन्हें वाचना के अयोग्य मान लिया-एक बार बारह वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ। साधु संघ समुद्र के किनारे चला गया। सुभिक्ष होने पर पाटलिपुत्र में पुनः मिला। दुर्भिक्ष के समय बहुत श्रुतधर मुनि स्वर्गवासी हो गए। जो शेष बचे उनमें से किसी को श्रुत का उद्देशक याद रहा, किसी को उसका एक अंश। संघ के अग्रणी मुनियों ने उन सबको व्यवस्थित रूप में संकलित किया। इस प्रकार ११ अंग संकलित हो गए। दृष्टिवाद को जानने वाला कोई मुनि नहीं बचा। उस समय आचार्य भद्रबाह नेपाल देश में थे। वे चतुर्दश पूर्वी थे। संघ ने परामर्श कर एक सिंघाड़ा (दो मुनि) वहां भेजा और निवेदन करवाया-आप यहां आकर दृष्टिवाद की वाचना दें। उन मुनियों ने वहां जाकर उनके सामने संघ का आवेदन प्रस्तुत किया। भद्रबाहु ने कहा-पहले दुष्काल था, इसलिए मैं महाप्राण की साधना में प्रविष्ट नहीं हुआ। अब मैंने उसकी साधना प्रारंभ की है, अतः मैं वाचना देने के लिए आने में असमर्थ हूं। . नेपालवत्तणीए य भहबाहुस्सामी अच्छंति . चोहसपुव्वी। तेसिं संघेणं पत्थवितो संघाडओ दिदिठवादं वाएहित्ति। गतो। निवेदितं संघकज्जं तं। ते भणंति-दुक्कालनिमित्तं महापाणं ण पविठो मि। इयाणिं पविट्ठो मि तो न जाति वायणं दातुं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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