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________________ उद्भव और विकास १०९ अ. ४ : जीवन प्रसंग वयासी-से केस णं गोयमा! तहारूवे नाणी वा यथार्थ ज्ञानी और तपस्वी है, जिसने मेरा यह रहस्यपूर्ण तवस्सी वा, जेणं तव एस अट्ठे मम ताव अर्थ तुम्हें बताया है और जिससे तुम यह जानते हो? रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ णं तुमं जाणसि? तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं गौतम ने कहा-स्कंदक! श्रमण भगवान महावीर मेरे वयासी-एवं खलु खंदया! ममं धम्मायरिए धर्माचार्य, धर्मोपदेशक हैं। वे उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक धम्मोवपदेसए समणे भगवं महावीरे उप्पण्ण- हैं। वे अर्हत्, जिन, केवली, अतीत, वर्तमान और भविष्य नाणदसणधरे अरहा जिणे केवली तीयपच्चुप्पन्न- के ज्ञाता, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। उन्होंने मुझे तुम्हारा मणागयवियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी जेणं मम यह रहस्यपूर्ण अर्थ बतलाया है। स्कंदक! इसी से मैं यह एस अढे तव ताव रहस्सकडे हव्वक्खाए, जओ णं जानता हूं। अहं जाणामि खंदया! तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं स्कंदक ने कहा-गौतम! हम चलें। तुम्हारे धर्माचार्य, वयासी-गच्छामो णं गोयमा! तव धम्मायरियं धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो नमंसामो करें। उनकी पर्युपासना करें। .......पज्जुवासामो। • अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध। . देवानुप्रिय! जैसा चाहो, विलम्ब न करो। - तए णं से भगवं गोयमे खंदएणं कच्चायणसगोत्तेणं गौतम ने स्कंदक के साथ जहां श्रमण भगवान सधि जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव पहारेत्थ महावीर थे, वहां जाने का संकल्प किया। गमणाए। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे श्रमण भगवान महावीर उस समय प्रतिदिन भोजी थे। वियट्टभोई यावि होत्था। तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स विअट्ट- प्रतिदिन भोजन करने के कारण श्रमण भगवान भोइस्स सरीरयं ओरालं सिंगारं कल्लाणं सिवं महावीर का शरीर पुष्ट, अतिशय शोभित, कल्याण, धन्नं मंगल्लं अणलंकियविभूसियं लक्खण-वंजण- शिव, धन्य और मंगलमय था। अलंकृत न होने पर भी गुणोववेयं सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणं विभूषित था। लक्षण, व्यञ्जन, गुण से युक्त तथा श्री से चिट्ठइ। अतीव-अतीव उपशोभायमान था। तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स स्कंदक ने श्रमण भगवान महावीर को देखा। वह भगवओ महावीरस्स विअट्टभोइस्स सरीरयं सिरीए अत्यंत हृष्ट-तुष्ट हुआ। महावीर के पास आया। दायीं अतीव-अतीव उवसोभेमाणं पासइ, पासित्ता ओर से दायीं ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदनहठ्ठतुट्ठ-चित्तमाणदिए......जेणेव समणे भगवं । नमस्कार किया और विनयपूर्वक उचित दूरी पर महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं प्राञ्जलिपुट बैठ पर्युपासना करने लगा। भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ। जे वि य ते खंदया! इमेयारूवे.......मणोगए श्रमण भगवान महावीर ने स्कंदक से कहा-स्कंदक! संकप्पे समुप्पज्जित्था केण वा मरणेणं मरमाणे तुम्हें यह मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-किस मरण से जीवे वड्ढति वा हायति वा? मरता हुआ जीव बढ़ता है? किस मरण से मरता हुआ
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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