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________________ उद्भव और विकास अ. १ : सृष्टिवाद बीजरुह, संमूर्छिम, तृण और लता। २२.से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तं जहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेइमा सम्मुच्छिमा उब्भिया उववाइया। जेसिं केसिंचि पाणाणं अभिक्कंतं पडिक्कंतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइ. गइ-विन्नाया त्रस जीवों के अनेक प्रकार हैं। जैसे-अंडज, पोतज. जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूर्च्छनज, उद्भिज, औपपातिक। जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना-ये क्रियाएं हैं, जो आगति एवं गति को जानते हैं वे त्रस हैं। जो कीट, पतंग, कुंथु, पिपीलिका आदि सब द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव हैं, सब तिर्यंच, सब नैरयिक, सब मनुष्य और सब देव हैं वे सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं। यह छट्ठा जीवनिकाय त्रसकाय कहलाता है। जे य कीडपयंगा, जा य कुंथुपिवीलिया, सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सव्वे चउरिंदिया सव्वे पंचिंदिया सव्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे नेरइया सव्वे मणुया सव्वे देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिया- एसो खलु छट्ठो जीवनिकाओ तसकाओ ति पवुच्चई। द्रव्यवाद २३.धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं॥ धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये । छह द्रव्य हैं। यह षद्रव्यात्मक विस्तार ही लोक है, ऐसा वरदर्शी अर्हतों ने प्ररूपित किया है। २४.भंते त्ति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-जीवा णं भंते! किं चड्ढंति ? हायंति? अवट्ठिया? गोयमा! जीवा नो वड्ढंति, नो हायंति, अवदिया। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया और पूछा-भंते! जीव बढ़ते हैं? घटते हैं? अथवा जितने हैं उतने ही रहते हैं? गौतम! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं। वे जितने हैं उतने ही रहते हैं। २५.सिद्धा णं भंते! पुच्छा! गोयमा! सिद्धा वड्ढंति, नो हायंति, अवट्ठिया वि। भंते! सिद्ध जीव बढ़ते हैं? घटते हैं ? अथवा जितने हैं उतने ही रहते हैं? गौतम! सिद्ध जीव बढ़ते हैं, घटते नहीं हैं। वे एक अपेक्षा (विरहकाल की अपेक्षा) से अवस्थित रहते हैं। २६.जीवा णं भंते! केवतियं कालं अवट्ठिया? भंते! जीव कितने समय तक अवस्थित रहते हैं? गोयमा! सव्वद्धं। गौतम! सर्वकाल में। लोकस्थिति के दस प्रकार । २७.दसविधा लोगठिती पण्णत्ता, तं जहा लोकस्थिति सार्वभौम नियम के दस प्रकार प्रज्ञाप्त हैं१. जणं जीवा उदाइत्ता-उहाइत्ता तत्थेव-तत्थेव जीव बार-बार मरते हैं और वहीं लोक में पुनः पुनः
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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