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आत्मा का दर्शन
खण्ड-१
जन्म लेते हैं। यह एक प्रकार की लोक-स्थिति है। ..
भुज्जो-भुज्जो पच्चायंति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। २. जणं जीवाणं सया समितं पावे कम्मे कज्जति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ३. जण्णं जीवाणं सया समितं मोहणिज्जे पावे कम्मे कज्जति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ४. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ५. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं तसा पाणा वोच्छिज्जिस्संति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा वोच्छिज्जिस्संति तसा पाणा भविस्संति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता।
जीवों के प्रतिदिन-प्रतिक्षण पापकर्म-ज्ञानावरण आदि का बंध होता रहता है-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
जीवों के प्रतिदिन-प्रतिक्षण मोहनीय पापकर्म का बंध होता रहता है-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
जीव-अजीव हो जाए और अजीव जीव हो जाए ऐसा न कभी हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
स जीवों का सर्वथा लोप हो जाए और सब जीव स्थावर हो जाए अथवा स्थावर जीवों का सर्वथा लोप हो जाए और सब जीव त्रस हो जाए, ऐसा न कभी हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
लोक अलोक हो जाए और अलोक लोक हो जाए-ऐसा न कभी हआ है, न हो रहा है और न कभी होगा-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
लोक अलोक में प्रविष्ट हो जाए और अलोक लोक में प्रविष्ट हो जाए-ऐसा न कभी हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
जहां लोक है, वहां जीव है और जहां जीव है, वहां लोक है-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
६. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं लोगे अलोगे भविस्सति, अलोगे वा लोगे भविस्सतिएवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ७. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं लोए अलोए पविस्सति, अलोए वा लोए पविस्संति- एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता। ८. जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा, जाव ताव जीवा ताव ताव लोए-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ९. जाव ताव जीवाण य पोग्गलाण य गतिपरियाए ताव ताव लोए, जाव ताव लोगे ताव ताव जीवाण य पोग्गलाण य गतिपरियाए- एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। १०. सव्वेसु वि णं लोगतेसु अबद्धपासपुट्ठा पोग्गला लुक्खत्ताए कज्जंति, जेणं जीवा य पोग्गला य णो संचायंति बहिया लोगंता गमणयाए-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता।'
जहां जीव और पुद्गलों की गति होती है, वहां लोक है और जहां लोक है वहां जीव और पुद्गलों की गति है-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
समस्त लोकांतों में होने वाले अबद्ध-पार्श्वस्पृष्ट (परस्पर स्कंध रूप में परिणत नहीं होने वाले) पुद्गल स्वभाव से ही रूक्ष होते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है।
ग्राह्य-ग्राहक भाव मुख्य रूप से विवक्षित है।
१. नोकस्थिति के कस प्रकार विश्व व्यवस्था के साबधीय
१. लोकस्थिति के दस प्रकार विश्व व्यवस्था के सार्वभौम
नियम हैं। इसके अन्य आठ प्रकारों में आधार-आधेय,