SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन ३२४ खण्ड-३ संबंधी है। वैक्रिय शरीर जन्म संबंधी और लब्धिजन्य भी होता है। आहारक शरीर योग- शक्तिजन्य होता है। ये तीनों शरीर सांगोपांग होते हैं ये स्थूल शरीर हैं स्थूल शरीर से मुक्त हो जाने पर आत्मा मुक्त नहीं होती है आत्मा की मुक्ति तब होती है जब सूक्ष्म शरीर भी छूट जाते हैं सूक्ष्म कार्मण शरीर से ही आत्मा स्थूल शरीर का निर्माण कर लेती है। 'कारणे सति कार्योत्पत्ति'-कार्य कारण के बिना उत्पन्न नहीं होता। सूक्ष्म शरीर न हो तो स्थूल शरीर कैसे हो सकता है? इसलिए एक शरीर से दूसरे शरीर के प्रवेश की कठिनाई नहीं रहती । आत्मद्रष्टा स्थूल शरीर को नहीं मिटाना चाहता, चाहता है मूल को उखाड़ना । जन्म और मृत्यु का मूल है सूक्ष्म शरीर । सूक्ष्म शरीर का मूलोच्छेदन तब ही होता है जबकि आत्मा पूर्ण संयम (निरोध) की स्थिति में पहुंच जाती है। वह शरीर के तीन वर्ग हैं • स्थूल शरीर औदारिक शरीर हाड़-मांस का शरीर । • सूक्ष्म शरीर वैक्रिय शरीर नाना रूप बनाने में समर्थ शरीर आहारक शरीर-विचार-संवाहक शरीर । • सूक्ष्मतम शरीर तैजस शरीर तापमय शरीर कार्मण शरीर - कर्ममय शरीर | तैजस शरीर तापमय शरीर है यह हमारी उष्मा, सक्रियता और शक्ति का संचालक है। यह न हो तो उष्मा पैदा नहीं हो सकती, पाचन नहीं हो सकता, रक्त का संचार नहीं हो सकता। यह तैजस शरीर ही हमारी स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं (संरचनाओं) का संचालन करता है। स्थूल शरीर में शक्ति का सबसे बड़ा भंडार है - तेजस शरीर । जिसका तेजस शरीर मंद है अग्नि मंद है, उसकी सारी क्रियाएं मंद हो जाती हैं। अग्नि तीव्र है तो सारी क्रियाएं तीव्र हो जाती हैं। तेजस शरीर के दो कार्य है:-१. शरीर तंत्र का संचालन २ अनुग्रह और निग्रह का सामर्थ्य | मेघः प्राह १४. भगवन् ! इन्द्रियग्रामं, चंचलं विद्यते संयमः कथमाधेयः, तात्पर्यं तस्य भृशम् । साधय ॥ मेघ बोला- भगवान् ! इन्द्रिय-समूह बहुत चंचल है। उसे संत कैसे किया जाए? आप उसका तात्पर्य मुझे समझाएं। ॥ व्याख्या ॥ मनुष्य को प्रकृति ने दिव्य देह, दिव्य इन्द्रियां, दिव्य मन, दिव्य बुद्धि और दिव्य चेतना प्रदान की है। आश्चर्य होता है फिर वह दुःखी क्यों है? लगता है वह अपनी दिव्य शक्ति का सम्यक उपयोग नहीं कर रहा है। इसका कारण वह स्वयं तो है ही किन्तु इसके साथ-साथ उसके पूर्वोपार्जित संस्कार-कर्म भी है वह नहीं चाहते हुए भी संस्कारों के कारण गलत दिशा में धकेल दिया जाता है। न उसका मन पर नियंत्रण है और न इन्द्रियों पर । मन और इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाले बाह्य साधन भी उसे वैसे ही उपलब्ध हो जाते हैं, जिससे वह सहज ही गलत दिशा में जाने को विवश हो जाता है। इसका मुख्य कारण है-इन्द्रियां, मन, बुद्धि व शरीर आदि अपने स्वामी के सम्मुख नहीं है। अपने मालिक के साथ उनका जो संबंध या बोध होना चाहिए वह नहीं है। धर्म-अध्यात्म की प्रक्रिया उसे अपने स्वामी की दिशा में मोड़ने के लिए है। जिस दिन स्वामित्व का बोध होता है चंचलता की समस्या समाहित हो जाती है। जो-जो प्रयोग निर्दिष्ट हैं उनका लक्ष्य भी आवरणों मलों को क्षीण कर सत्य तत्त्व से परिचित कराना है। मेघ ने जो प्रश्न खड़ा किया है उसका समाधान विविध प्रयोगों में निहित है। १५. बाध्यमानो ग्राम्यधर्मेः रूषणं भुञ्जीत भोजनम् । प्रकुर्यादवमौदर्य, उर्ध्वस्थानं स्थितो भवेत् ॥ भगवान् ने कहा- मुनि ग्राम्य-धर्म-काम-विकार से पीड़ित होने पर रूक्ष भोजन करे, मात्रा में कम खाए और कायोत्सर्ग करे।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy