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________________ आत्मा का दर्शन ४०४ खण्ड-१ प्राण-वियोजन न करे ३१.एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए। यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने जीवलोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया है। इस शाश्वत धर्म का प्रतिपादन केवल महावीर ने ही नहीं किया, सभी अर्हतों ने ऐसा किया है। जे अईया, जे य पड़प्पण्णा; जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति। धर्म और संप्रदाय एक नहीं ३२.चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा रूवं णाममेगे जहति, णो धम्म, धम्मं णाममेगे जहति, णो रूवं, एगे रूवंपि जहति, धम्मं पि, एगे णो रूवं जहति, णो धम्म। ३३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- . धम्म णाममेगे जहति, णो गणसंठितिं, गणसंठितिं णाममेगे जहति, णो धम्म, एगे धम्मं वि जहति, गणसंठितिं वि, एगे णो धम्मं जहति णो गणसंठिति। पुरुष के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं-कुछ पुरुष वेश का त्याग कर देते हैं, धर्म का त्याग नहीं करते। कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं, वेश का त्याग नहीं करते। कुछ पुरुष वेश का भी त्याग कर देते हैं और धर्म का भी त्याग कर देते हैं। कुछ पुरुष न वेश का त्याग करते हैं और न धर्म का त्याग करते हैं। पुरुष के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं-कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं, गण-संस्थिति (गण मर्यादा) का त्याग नहीं करते। कुछ, पुरुष गण-संस्थिति का त्याग कर देते हैं, धर्म का त्याग नहीं करते। कुछ पुरुष धर्म का भी त्याग कर देते हैं और गण-संस्थिति का भी त्याग कर देते हैं। कुछ पुरुष न धर्म का त्याग करते हैं और गण-संस्थिति का त्याग करते हैं। मानसिक अहिंसा ३४.संरंभसमारंभे आरंभे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई॥ यत्नशील यति संरंभ, 'समारंभ और आरंभं में प्रवर्तमान मन का निवर्तन करे। संरंभ-किसी का अनिष्ट करने का संकल्प। समारंभ-अनिष्टकारक साधन सामग्री का चिंतन। आरंभ-अनिष्ट करने का आवेशपूर्ण ध्यान-मानसिक एकाग्रता। वाचिक अहिंसा ३५.संरंभसमारंभे आरंभे य तहेव य। वयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई। यत्नशील यति संरंभ, समारंभ और आरंभ में प्रवर्तमान वचन का निवर्तन करे। संरंभ-गाली देने की संकल्प सूचक ध्वनि। समारंभ-गाली देने का वाचिक प्रयत्न, आरंभ-गाली देना। कायिक अहिंसा ३६.संरंभसमारंभे आरंभे तहेव य। कायं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई। यत्नशील यति संरंभ, समारंभ. और आरंभ में प्रवर्तमान शरीर का निवर्तन करे। संरंभ-मारने के संकल्प के अनुरूप शरीर चेष्टा, समारंभ-मारने की साधन
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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