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गृहस्थ-धर्म प्रबोधन
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आचरण की दो प्रेरणाएं हैं-मूर्छा और विरति। मूर्छा-प्रेरित आचरण धर्म नहीं है। विरति-प्रेरित आचरण धर्म है। गृहस्थ पदार्थ का संग्रह करता है, पदार्थ के बीच जीता है और पदार्थ का भोग करता है। सहज ही प्रश्न होता है-पदार्थ के मध्य रहने वाला गृहस्थ धर्म की आराधना कैसे कर सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् महावीर ने विभज्यवादी दृष्टिकोण से दिया-गृहस्थ धर्म की आराधना कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता। मूच्र्छा या आसक्ति की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। प्रत्याख्यान' की शक्ति को विकृत बनाने वाली मूर्छा उपशांत या क्षीण होती है, तब विरति की चेतना प्रकट होती है। इस अवस्था में पदार्थ के मध्य रहने वाला गृहस्थ भी विरत हो सकता है, धर्म की आराधना कर सकता है। जितनी मूर्छा उतनी अविरति/असंयम। जितनी अमूर्छा उतनी विरति/संयम। अविरति और विरति अथवा मूर्छा और अमूर्छा के आधार पर भगवान् महावीर ने धर्म को दो भागों में विभक्त किया। प्रस्तुत अध्याय में इसी विषय की परिक्रमा है।
मेघः प्राह १. गृहप्रवर्तने लग्नो, गृहस्थो भोगमाश्रितः। मेघ बोला-भगवन् ! जो गृहस्थ भोग का सेवन करता है और धर्मस्याराधनां कर्त, भगवन्! कथमर्हति? गृहस्थी चलाने में लगा हआ है, वह धर्म की आराधना कैसे कर
सकता है?
॥ व्याख्या ॥ महावीर ने कहा है-व्यक्ति गृहस्थ वेश में भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है और साधु वेश में भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप तीर्थ में और इसके बाहर भी मुक्ति का द्वार बन्द नहीं है। यह दृष्टिकोण सम्पूर्ण
आधारित है। मेघ की दृष्टि में यह प्रतिपादन नवीन था। उसे शंका हुई कि गृहस्थ साध्य को कैसे प्राप्त कर सकता है, जब कि वह गृहकार्यों में संलग्न रहता है ? मुक्त श्रमण ही हो सकता है, इसलिए लोग घर छोड़कर प्रव्रजित होते हैं। यदि गृहस्थ जीवन में मुक्ति साध्य हो सकती है तो कौन श्रमण, भिक्षु बनने का कष्ट उठाएगा?
दूसरा कारण यह भी रहा कि श्रमण परम्परा में श्रमण होने पर बल दिया गया। गृहस्थ जीवन में सत्य की घटना घटने के विरल ही उदाहरण हैं। श्रमण ही सब पापों से मुक्त हो सकता है-ऐसे संस्कारों के कारण लोगों का झुकाव श्रामण्य की ओर हुआ, श्रमण सम्मानित हुए और गृहस्थ अपूज्य। गृहस्थों के लिए मोक्ष का द्वार प्रायः बन्द जैसा रहा। गृहस्थ कितनी ही ऊंची साधना करे, वह श्रमण से नीचा ही है-ऐसी स्थिति में यह शंका कोई आश्चर्यजनक नहीं है। भगवान् प्राह २. देवानुप्रिय! यस्य स्याद्, आसक्तिः क्षीणतां गता। भगवान् ने कहा-देवानुप्रिय! जिस व्यक्ति की आसक्ति धर्मस्याराधनां कुर्यात्, स गृहे स्थितिमाचरन्॥. क्षीण हो जाती है वह घर में रहता हुआ भी धर्म की आराधना कर
सकता है।