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संबोधि ३. गृहेऽप्याराधना नास्ति, गृहत्यागेऽपि नास्ति सा। ___ आशा येन परित्यक्ता, साधना तस्य जायते॥
अ. १४ : गृहस्थ-धर्म-प्रबोधन धर्म की आराधना न घर में है और न घर को छोड़ने में। उसका अधिकारी गृहस्थ भी नहीं है और गृहत्यागी भी नहीं है। उसका अधिकारी वह है, जो आशा को त्याग चुका है।
॥ व्याख्या ॥ भगवान् का कथन है-मैंने साधक और गृहस्थ में कोई भेद-रेखा नहीं खींची है। साध्य की साधना के लिए प्रत्येक क्षेत्र खुला है। साधना हर कहीं हो सकती है। वह दिन में भी हो सकती है और रात में भी हो सकती है। अकेले में भी हो सकती है, बहुतों के बीच भी हो सकती है। सोते भी हो सकती है और जागते हुए भी। घर में भी हो सकती है और घर का त्याग करने पर भी। इसके लिए कोई प्रतिबंध नहीं है। प्रतिबंध एक ही है और वह है-आसक्ति का त्याग होना चाहिए। इन्द्रिय और इन्द्रिय-विषयों में जब तक अनुराग है तब तक मुक्ति नहीं है, फिर भले वह साधक हो या गृहस्थ। आशा, इच्छा और आकर्षण ही बंधन है।
१. नाशा त्यक्ता गृहं त्यक्तं,नासौ त्यागी न वा गृही। . आशा येन परित्यक्ता, त्यागं सोऽर्हति मानवः॥
जिसने घर का त्याग किया किन्तु आशा का त्याग नहीं किया, वह न त्यागी है और न गृहस्थ। वही मनुष्य त्याग का अधिकारी है, जो आशा को त्याग चुका है।
॥ व्याख्या ॥ त्यागी वह नहीं है जिनके पास वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शय्या आदि भोग-सामग्री नहीं है किन्तु त्यागी वह है जो प्राप्त भोग-सामग्री को विरक्त होकर ठुकराता है। पदार्थों के प्रति फिर उसका कोई आकर्षण नहीं रहता। भगवान् महावीर ‘से पूछा-'भगवन् ! प्रत्याख्यान से आत्मा को क्या प्राप्त होता है ? . . भगवान ने कहा-'त्याग से व्यक्ति वितृष्ण हो जाता है। मन को भाने वाले और न भाने वाले पदार्थों में उसका रागवेष नहीं रहता।'
'उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलिया मट्टिया मया।
__ दोवि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सो तत्थ लग्गई।' (उत्तर० २५/४०) 'सूखे और गीले दो मिट्टी के गोले हैं। दोनों को भीत पर फेंका जाता है, जो सूखा होता है वह भीत पर नहीं चिपकता, किन्तु जो गीला है वह चिपक जाता है।'
यह आसक्ति का स्वरूप है। आसक्ति स्नेह है। स्नेह पर रजकण चिपकते हैं, अनासक्त पर नहीं। वस्तुएं निर्जीव हैं, उनमें न बंधन है और न मुक्ति। बंधन व मुक्ति आशा और अनाशा में है।
५. पदार्थत्यागमात्रेण, त्यागी स्याद् व्यवहारत।
आसक्तः परिहारेण, त्यागी भवति वस्तुतः॥
जो व्यक्ति केवल पदार्थों का त्याग करता है, किन्तु उसकी वासना का त्याग नहीं करता वह व्यवहार-दृष्टि से त्यागी है,
वास्तव में नहीं। वास्तव में त्यागी वही है जो आसक्ति का त्याग - करता है।
६. पूर्णत्यागः पदार्थानां, कर्तुं शक्यो न देहिभिः।
आसक्तेः परिहारस्तु, कर्तुं शक्योऽस्ति तैरपि॥
देहधारियों के लिए पदार्थों का सर्वथा परित्याग करना संभव नहीं होता किन्तु वे आसक्ति का सर्वथा परित्याग कर सकते हैं।
७. यावनाशापरित्यागः, क्रियते गेहवासिभिः। — तावान् धर्मो मया प्रोक्तः, सोऽगारधर्म उच्यते॥
गहवासी मनुष्य आशा का जितना परित्याग करते हैं, उसी को मैंने धर्म कहा है और वही अगार-धर्म कहलाता है।