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________________ आत्मा का दर्शन ३४० खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ शरीर की विद्यमानता में इन्द्रियां हैं और इन्द्रियों की सत्ता में विषयों का ग्रहण भी। किन्तु ये अपने आप में बंधनकारक नहीं हैं। बंधन का निमित्त है-आशा, इच्छा, अनुराग और आसक्ति। व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों से उपरत नहीं हो सकता लेकिन उनमें जो आकर्षण है, इच्छा है, उसे वह छोड़ सकता है। आशा-त्याग ही धर्म है। गीता का अनासक्त-योग और जैन धर्म का आशा-त्याग एक ही है। किसी भी देहधारी आदमी के लिए कर्म का पूर्ण त्याग कर देना असंभव है। परन्तु जो कर्मों के फलों को त्याग देता है वही त्यागी कहलाता है। आसक्ति त्याग का जिस मात्रा में अभ्यास है उसी मात्रा के अनुसार आत्मा धर्म या मोक्ष के सन्निकट है। ८. सम्यक्श्रद्धा भवेत्तत्र, सम्यक्ज्ञानं प्रजायते। जिसमें सम्यक्-श्रद्धा होती है, उसी में सम्यक्-ज्ञान होता है सम्यक्चारित्रसम्प्राप्तः, योग्यता तत्र जायते॥ और जिसमें ये दोनों होते हैं उसी में सम्यक्-चारित्र की प्राप्ति की योग्यता होती है। ९. योग्यताभेदतो भेदो, धर्मस्याधिकृतो मया। एक एवान्यथा धर्मः, स्वरूपेण न भिद्यते॥ योग्यता में तारतम्य होने के कारण मैंने धर्म के भेद का निरूपण किया है। स्वरूप की दृष्टि से वह एक है। उसका कोई विभाग नहीं होता। १०.महाव्रतात्मको धर्मोऽनगाराणां च जायते। अणुव्रतात्मको धर्मो, जायते गृहमेधिनाम्॥ . अनगार के लिए महाव्रतरूप धर्म और गृहस्थ के लिए अणुव्रतरूप धर्म का विधान किया गया है। ॥ व्याख्या ॥ सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र (आचरण) धर्म है। जिसकी दृष्टि सम्यग् हो गई, पर-पदार्थों या , मान्यताओं से जो घिरा नहीं है, वह सम्यग् द्रष्टा होता है। सम्यग् ज्ञान भी वहीं होता है और सम्यग् चारित्र की योग्यता भी वहीं होती है। विभाजन योग्यता के आधार पर है। श्रमण और गृहस्थ-दोनों की गति एक ही दिशा की ओर है। किन्तु गति का अंतर है। एक की यात्रा 'जेट विमान' पर होती है और दूसरे की यात्रा 'कार' या 'साइकिल' पर होती है। पहुंचते दोनों हैं पर पहुंचने के समय में अंतर हो जाता है। महाव्रत की यात्रा जेट मिमान की यात्रा है। महाव्रती का मुख संसार से उदासीन होता है और परमात्मा के सम्मुख। बस, वह एकमात्र आत्मा को धुरी मानकर अनवरत उसी दिशा में बढ़ता रहता है। उसकी दृष्टि इधर-उधर नहीं जाती और जाती भी है तो तत्काल वह अपने ध्येय पर उसे, पुनः ले आता है। श्रमण होकर फिर जो अपने ध्येय-आत्मदर्शन में अप्रवृत्त रहता है तो समझना चाहिए श्रामण्य केवल बाहर से आया है, भीतर से उत्पन्न नहीं हुआ। गृहस्थ के और उसके जीवन में वेष के अतिरिक्त विशेष अंतर नहीं रहता। गृहस्थ अनासक्ति और आसक्ति के मध्य गति करता रहता है। वह सर्वथा इन्द्रिय और मन के अनुराग से मुक्त. नहीं हुआ है। उसके पैर दोनों दिशाओं में चलते हैं। लेकिन वह जानता है कि मंजिल यह नहीं है। उसे ममत्व से मुक्त होना है। इसलिए वह स्थूल से सूक्ष्म, दृश्य से अदृश्य और भ्रांति से सत्य की तरफ सचेष्ट रहता है। अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह यह व्यक्त करता है कि व्यक्ति भीतर में आसक्त है। आसक्ति के टूटने पर वस्तुओं का संग्रह हो, यह अपेक्षित-सा नहीं लगता। उसके पीछे कोई अन्य कारण हो तो भिन्न बात है। त्याग वही कर सकता है जो आसक्ति से मुक्त है। आसक्त व्यक्ति छोड़कर भी बहुत इकट्ठा कर लेता है। सामान्य व्यक्ति वस्तुओं को पकड़ते हैं और उन पर राग-द्वेष का आरोपण करते हैं, किन्तु राग-द्वेष पर प्रहार नहीं करते। जब कि मूल है-राग-द्वेष। धर्म की मूल साधना है-समता, राग-द्वेष-भुक्त प्रवृत्ति। यदि धार्मिकों का जीवन रागद्वेष से मुक्त होता तो निःसंदेह यत् किंचित् मात्रा में सफलता मिलती। लकीर को पीटने से सांप नहीं मरता। . महावीर ने कहा है-परिग्रह-मूर्छा आसक्ति है। आसक्ति का त्याग न कर, केवल जिसने घर को छोड़ दिया, वह न मुनि है और न गृहस्थ। कबीर ने कहा है-'आसन मारके बैठा रे योगी आश न मारी जोगी'-योगी आसन जमा कर बैठा है किन्तु आशा-आकांक्षा को नहीं मारा।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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